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श्रावक जीवन-दर्शन / २७५
इस प्रकार की शुभ भावना से भावित, पूर्वोक्त दिनादि कृत्यों का पालन करने वाला, “यही निर्ग्रन्थ प्रवचन अर्थभूत और परमार्थ है और शेष अनर्थभूत है" इस प्रकार सिद्धान्त में कही गयी रीति से रहने वाला, सभी कार्यों में सर्व प्रयत्न से यतनापूर्वक ही प्रवृत्ति करने वाला, सर्वत्र अप्रतिबद्ध चित्त वाला, क्रमश: मोह को जीतने वाला, पुत्र- भाई आदि गृहभार को उठाने में समर्थं न हो तब तक अथवा अन्य किसी कारण तक गृहस्थ जीवन को व्यतीत कर उचित समय पर अपनी योग्यता का अनुमान कर मन्दिर में अष्टाह्निक महोत्सव, चतुविध संघ की पूजा, दीन- अनाथ आदि को यथाशक्ति दान देकर एवं मित्र स्वजन - परिचितजन आदि से क्षमायाचना कर विधिपूर्वक सुदर्शन सेठ आदि की तरह दीक्षा स्वीकार करता है। कहा है- " कोई व्यक्ति सर्व रत्नमय जिनमन्दिरों से पृथ्वीवलय को विभूषित करता है, उस पुण्य से भी चारित्र की ऋद्धि अधिक है ।"
साधुपने में ये गुण बतलाये हैं- "चारित्र में दुष्कर्म का प्रयत्न नहीं है, खराब युवती, पुत्र, स्वामी के दुर्वाक्य का दुःख नहीं है । राजादि को प्रणाम करना नहीं पड़ता है, अशन, वस्त्र, धन व स्थानादि की चिन्ता नहीं होती है, ज्ञान की प्राप्ति होती है, लोक में पूजा होती है, प्रशमसुख से रति होती है और मरने के बाद मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है । अतः हे बुद्धिमानो ! उस साधुता की
प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो ।
5 आरम्भ-त्याग 5
यदि किसी कारण से अथवा शक्ति के अभाव के कारण दीक्षा ग्रहण करने में शक्तिमान न हों तो आरम्भ-त्याग आदि अवश्य करना चाहिए।
पुत्र आदि घर की समस्त जवाबदारी लेने वाला हो तो समस्त आरम्भ का और न हो तो जिस प्रकार निर्वाह हो सके उस प्रकार सर्व सचित्त आहार आदि कुछ आरम्भ का अवश्य त्याग करना चाहिए । यदि सम्भव हो तो स्वयं के लिए बनाये गये अन्न, पाक आदि का भी त्याग करे । कहा है- " जिसके लिए आहार होता है, उसी के लिए आरम्भ होता है, आरम्भ में प्राणिवध है और प्राणिवध से दुर्गति होती है ।"
5 ब्रह्मचर्य पालन फ
यावज्जीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करना चाहिए। भीम सोनी की मठि आने के कारण उसके स्वीकार हेतु पेथड़शाह ने बत्तीसवें वर्ष में ही ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया था । ब्रह्मचर्य का फलवर्णन श्रर्थदीपिका में कहा गया है ।
5 श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ
प्रतिमादि तप विशेष करना चाहिए। आदि शब्द से संसार से पार उतरने के लिए दुष्कर तपविशेष का स्वीकार करना चाहिए। मासिक आदि प्रतिमाएँ इस प्रकार हैं
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(1) दर्शन प्रतिमा - राजाभियोग आदि छह आगार से रहित, श्रद्धा आदि चार गुणों से युक्त, सम्यग् दर्शन का भय, लोभ, लज्जा श्रादि से प्रतिचार लगाये बिना पालन करना चाहिए । त्रिकाल देवपूजा में तत्पर रहना चाहिए। पहली प्रतिमा एक मास तक पालन करनी होती है ।