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श्राद्धविधि / २९०
वास्तव में, राजाओं की यही मर्यादा है। उसके बाद तीसरे दिन राजा ने अपने पुत्र के चन्द्र व सूर्यदर्शन का महोत्सव किया ।
छठे दिन राजा ने रात्रि जागरण महोत्सव भी बड़े ठाटबाट के साथ मनाया । राजा ने शुभ दिन में सोत्साह-महामहोत्सवपूर्वक स्वप्नानुसार उस पुत्र का नाम 'शुकराज' रखा। जिस प्रकार पाँच समितियों के द्वारा संयम की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पाँच धावमाताओं के द्वारा लालनपालन कराता हुआ वह बालक बढ़ने लगा ।
बड़ों की रीति-नीति के अनुसार राजा ने उस बालक के अन्नप्राशन, रिखण ( घुटने चलना ) गमन, वचन, वस्त्राच्छादन, वर्षगाँठ इत्यादि कार्यं प्रत्यन्त ही उत्सवपूर्वक किये ।
न्यायबुद्धिवाला वह बालक क्रमशः बढ़ता हुआा पाँच वर्ष में सफल ( फलवाले) आम्रवृक्ष की भाँति सफल हुआ । मानों स्पर्द्धा से एक साथ ही गुरणों ने इन्द्र के पुत्र जयन्त से भी ज्यादा रूपवाले उसका आश्रय लिया। बालक होने पर भी अबाल (प्रौढ़) की तरह वह बालक वाणी की चतुरता, मधुरता, पटुता के द्वारा सज्जनों को भी खुश करने लगा ।
एक दिन बसन्त ऋतु में वह राजा अपने पुत्र व रानी के साथ पुष्पों से सुवासित बने उद्यान में गया । राजा उसी आम्रवृक्ष के मनोहर तलभाग में बैठा हुआ था । वहाँ पूर्वअनुभूत वृत्तान्त को यादकर खुश होकर वह राजा अपनी प्रिया को बोला - "हे प्रिये ! यह वही सुन्दर प्राम्रवृक्ष है जहां बैठे तोते के वचन को सुनकर मैं महावेग उस आश्रम की ओर दौड़ा था । वहाँ मैं तेरे साथ पारिणग्रहरण करके कृतार्थ हुआ ।” पिता की गोद में रहे उस बालक ने भी यह बात सुनी और शस्त्र से छिन्न कल्पवृक्ष की डाल की तरह वह तुरन्त मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा ।
अत्यन्त दुःखी हुए उसके माता-पिता ने आवाज की, जिससे सभी लोग इकट्ठ े हो गये ।
"अहो ! क्या हो गया ?" इस प्रकार बोलते हुए सभी लोग आकुल-व्याकुल हो गये । सचमुच, बड़ों के सुख में सभी सुखी व बड़ों के दुःख में सभी दुःखी होते हैं ।
चन्दन मिश्रित शीतल जल के छींटें और कदली दल से हवा डालने आदि अनेक उपचारों के करने पर वह बालक होश में आया । कमल की पंखुड़ियों की भाँति उसके नेत्र खुल गये । परन्तु सूर्य रूपी चैतन्य का योग होने पर भी उसका मुख रूपी कमल नहीं खिला । अपने दोनों नेत्रों से उसने प्रेक्षापूर्वक देखा, परन्तु बुलाने पर भी वह कुछ नहीं बोला । छद्मस्थ तीर्थंकर की भाँति इसने मौन ले लिया है। वास्तव में, दैव से कोई धोखा हुआ है ।
हमारे दुर्भाग्य से इसकी जीभ स्थिर हो गयी पुत्र को अपने घर ले आये ।
इस प्रकार चिन्तातुर बने माता-पिता उस
दुर्जन पर किये गये उपकार की भाँति राजा ने नाना प्रकार के उपचार किये, परन्तु वे सब निष्फल ही सिद्ध हुए, इस प्रकार की अवस्था में उसके छह मास बीत गये, परन्तु वह नहीं बोला । न ही किसी ने उसके मौन रहने का वास्तविक कारण बतलाया ।