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श्रावक जीवन-दर्शन/३११
स्वीकार किया। उस व्यन्तर और सुवर्णरेखा ने भी सम्यक्त्व स्वीकार किया। मोह के कारण उनका दिव्य-औदारिक संयोग भी दीर्घकाल तक रहा। श्रीदत्त अपने घर आया। राजा ने भी उसका बहुमान किया। उसने अपने धन का आधा भाग और अपनी कन्या शंखदत्त को दे दी और शेष धन को सात क्षेत्रों में बोकर निष्पाप बुद्धिवाले उसने ज्ञानी गुरु के पास दीक्षा अंगीकार कर ली और विहार करता हुआ अब यहाँ पाया है। महामोह को जीतने से मुझे केवलज्ञान उत्पन्न हया है। "हे शुकराज! मेरी पूर्वभव की जो स्त्रियाँ थीं, वे ही मेरी माता और पुत्री हई अतः इस संसार में कुछ भी आश्चर्यकारी नहीं है। पण्डित पुरुषों को व्यावहारिक सत्य द्वारा व्यवहार करना चाहिए।
सिद्धान्त में भी दस प्रकार के सत्य कहे गये हैं- (1) जनपद सत्य (2) सम्मत सत्य (3) स्थापना सत्य (4) नाम सत्य (5) रूप सत्य (6) प्रतीत्य सत्य (7) व्यवहार सत्य (8) भाव सत्य (9) योग सत्य और (10) उपमा सत्य ।
(1) कुकरण देश में पानी को पयः, पिच्च, नीर, उदक आदि कहते हैं, यह जनपद सत्य है।
(2) कुमुद (श्वेत कमल) एवं कुवलय (नीलकमल) आदि सब जाति के कमल कीचड़ में पैदा होते हैं फिर भी अरविन्द (लाल कमल) को ही पंकज कहते हैं, यह सम्मत सत्य है।
(3) लेप्य प्रतिमा में अरिहन्त आदि को स्थापना, 1-2-3 इत्यादि अंकों की स्थापना, कार्षापण आदि में मुद्राविन्यास आदि स्थापना सत्य है।
(4) कुल की वृद्धि करने वाला नहीं होने पर भी 'कुलवर्धन' यह नाम सत्य है। (5) लिंग मात्रधारी भी साधु कहलाते हैं, यह रूप सत्य है । (6) अन्य-अन्य अंगुली की अपेक्षा अनामिका छोटी और बड़ी है, यह प्रतीत्य सत्य है ।
(7) घास के जलने पर भी 'पर्वत जलता है' पानी के टपकने पर भी 'बर्तन टपकता है' कृश उदर वाली कन्या को 'अनुदरा' कन्या कहना एवं लोम होने पर भी 'अलोमिका' भेड़ कहना, इत्यादि व्यवहार सत्य है।
(8) वर्णादि रूप भाव है। पाँच वर्ण होने पर भी बगुले में शुक्लवर्ण की प्रधानता के कारण सफेद बगुला कहना भाव सत्य है।
(9) दण्ड के संयोग से दण्डी कहना- योग सत्य है। (10) 'यह तालाब समुद्र के समान है'-यह उपमा सत्य है ।
यह बात सुनकर वह शुकराज 'हे माता ! हे पिता !' इस प्रकार व्यक्त रूप से बोलने लगा। राजा ने कहा- "हे प्रभो ! आपको धन्य है, आपको यौवन वय में ही वैराग्य हो गया, क्या मुझे भी कभी वैराग्य होगा?" मुनि भगवन्त ने कहा-"तुम्हारी पत्नी चन्द्रवती का पुत्र जब तुम्हारे दृष्टिपथ में आयेगा, तब तुम्हें वैराग्य होगा।" ज्ञानी के वचन को सत्य मानकर ज्ञानी गुरुदेव को नमस्कार कर वह उल्लासपूर्वक अपने परिवार के साथ अपने घर पाया। अपनी सौम्य दृष्टि से अमृत की वर्षा करता हुआ शुकराज जब दस वर्ष का हुआ तब रानी कमलमाला ने दूसरे पुत्ररत्न को जन्म दिया। राजा ने उत्सवपूर्वक पूर्व में देखे हुए दिव्य स्वप्न के अनुसार उसका 'हंसराज' नाम रखा। शुक्ल पक्ष के चन्द्र की भाँति वह बढ़ती हुई रूप आदि समृद्धि के द्वारा दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। क्रमशः वह पाँच वर्ष का हुआ। लोगों के लिए हर्षोत्कर्ष के उत्सव समान वह राम के साथ लक्ष्मण की तरह शूकराज के साथ क्रीडा करता था।