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श्रावक जीवन-दर्शन / ३०६
हे नीच ! मरी हुई की तरह तू मुझे कुछ जवाब क्यों नहीं देती है ।" इस प्रकार भर्त्सना करने पर वह दासी उठी और सुन्दर वचनों से गौरी का समाधान करके पानी ले प्रायी और उसे पिलाया । परन्तु दुर्वचन के कारण गौरी ने असह्य दुष्कर्म का बंध कर लिया था । हास्य से भी बोला हुमा वचन दुष्ट फल को देने वाला होता है तो फिर क्रोध से बोले गये वचन की तो क्या बात करें ? बीत जाने के बाद प्रायी हुई दासी पर गुस्सा करके गंगा भी बोली - "बंदे ! क्या तुझे किसी ने कैद कर लिया था सो अब प्रायी है ?" मानों गौरी की स्पर्धा न हो, इस प्रकार गंगा ने भी दुष्ट कर्म बाँधा । वास्तव में, क्रोध को धिक्कार हो
समय
एक बार अनेक कामी "जिस प्रकार भ्रमर विकसित द्वारा इच्छित यह स्त्री धन्य है छोड़ दिया है ।"
पुरुषों के साथ विलास करती हुई वेश्या को देखकर गंगा ने सोचामल्लिका के फूलों पर मंडराते हैं, इसी प्रकार अनेक कामी पुरुषों के । अभागी से भी प्रभागी ऐसी मुझे धिक्कार हो कि पति ने भी मुझे
वर्षाऋतु में जैसे लोहा मलिन होता है, वैसे दुर्मति गंगा ने इस प्रकार के दुर्ध्यान द्वारा पुनः दुष्कर्म का बंध किया । क्रमशः वे दोनों मरकर ज्योतिष्क देवलोक में देवियों के रूप में पैदा हुईं और वहाँ से च्यव कर तुम्हारी माता और पुत्री हुई हैं । दुर्वचन के कारण तुम्हारी पुत्री को सर्प का उपद्रव हुआ और माता को चिन्तासहित कई दिनों तक भीलों के कब्जे में रहना पड़ा। वेश्या की प्रशंसा के कारण तुम्हारी माता वेश्यापने को प्राप्त हुई । पूर्व कर्म से कौनसी असम्भव बात सम्भवित नहीं होती है ?
जो कर्म वारणी मात्र से अथवा मन से ही बाँधे जाते हैं, उनका भी यदि प्रायश्चित्त न हो तो उन्हें काया से भोगना पड़ता है । पूर्वभव के अभ्यास के कारण तुमने उन दोनों के भोग की कामना की । अभ्यास के अनुसार ही भवान्तर में संस्कार प्रगट होते हैं । धर्म के संस्कारों का अत्यधिक अभ्यास होने पर भी वे संस्कार मरने के बाद साथ नहीं जाते हैं, जबकि खराब संस्कार तो मन्द हों तो भी उग्र संस्कार की तरह अग्रणी की भाँति साथ-साथ चलते हैं । इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीदत्त को संसार के प्रति वैराग्य पैदा हो गया। उसने कहा - " हे तात! मुझे इस संसार से निस्तार पाने का उपाय बतलाओ । अहो ! इस संसार में पुरुष की भी जहाँ इस प्रकार की विडम्बना होती है, ऐसे श्मशान के समान संसार में कौन व्यक्ति राग करेगा ?" मुनिवर ने कहा"इस पार संसाररूपी कान्तार का पार पाने के लिए एक मात्र चारित्र ही उत्तम साधन है अतः उसे पाने के लिए शीघ्र प्रयत्न करो ।"
श्रीदत्त ने कहा - "प्रभो ! यह मुझे इष्ट है किन्तु यह कन्या मुझे किसी को देनी होगी । भवसागर को तैरने की इच्छा वाले मेरे लिए इसकी चिन्ता पत्थर की शिला के समान है। """ गुरुदेव ने कहा - " तू पुत्री की व्यर्थ ही चिन्ता करता है । तेरा मित्र शंखदत्त तेरी पुत्री के साथ विवाह करेगा ।"
गद्गद होकर आँखों में आँसू बहाता हुआ खिन्न बना श्रीदत्त बोला - "हे जगद्बन्धो ! पापी और निर्दय ऐसा मेरा मित्र कहाँ से ?" मुनिवर ने कहाँ - "अरे भद्र ! खेद मत कर । मत हो । मानों बुलाये हुए की तरह ही वह अभी यहां आयेगा ।"
दुःखी
श्रीदत्त आश्चर्य से हँसी के भाव को व्यक्त करने लगा तभी उसे दूर से अपना मित्र आता