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श्राविधि/३०८
उसी समय लज्जित हुए राजा ने श्रीदत्त को बुलाया और अत्यन्त मादर से अपने पास में बिठाकर, जितने में उसने मुनि भगवन्त को पूछा-"यह सत्यवादी कैसे ?" इतने में सुवर्णरेखा को वहन करता हुआ वह बन्दर वहाँ आ गया। सुवर्णरेखा को पीठ से नीचे उतार कर स्वयं भी वहाँ बैठ गया। सभी ने कौतुक से यह दृश्य देखा। "श्रीदत्त सत्यवादी है।" इस प्रकार राजा आदि ने उसकी प्रशंसा की। उसके बाद राजा ने सम्पूर्ण वृत्तांत पूछा, तब केवली भगवन्त ने सब बातें कहीं।
(७) संसार को विचित्रता सरल प्राशय वाले श्रीदत्त ने प्रभु से पूछा-“हे प्रभो! पुत्री और माता के प्रति मुझे अनुराग क्यों हुआ ?"
गुरुदेव ने कहा-"इसमें तुम्हारे पूर्व जन्म का सम्बन्ध है, उसे तुम सुनो-पंचाल देश में कांपिल्यपुर नाम का नगर है। वहाँ अग्निशर्मा नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके चैत्र नाम का पुत्र था। शंकर की तरह उसके गंगा व गौरी नाम की दो प्रिय स्त्रियाँ थीं। 'ब्राह्मणों को भिक्षा इष्ट हैं' अतः मैत्र नाम के मित्र के साथ वह चैत्र एक बार भिक्षा के लिए कुकण देश में गया। वहाँ भ्रमण करते हुए उन्होंने बहुत सा द्रव्य उपार्जित किया। एक बार चैत्र सोया हुआ था तब कपटी मंत्र ने सोचा-'इसको खत्म कर समस्त द्रव्य मैं ले ल" इस प्रकार विचारकर वह उसे मारने के लिए खड़ा हुआ। सचमुच, 'अनर्थ को देने वाले अर्थ को धिक्कार है। जिस प्रकार दुष्ट वायु बादलों को नष्ट कर देती है उसी प्रकार अर्थलुब्ध व्यक्ति विवेक, सत्य, सन्तोष, लज्जा, प्रेम व दया आदि गुणों को नष्ट कर देता है। परन्तु भाग्ययोग से उसी समय उसके चित्त में विवेक रूपी सूर्य का उदय हो गया, जिससे लोभ रूपी गाढ़ अन्धकार दूर हो जाने से उसने सोचा-"विश्वास करने वाले मित्र का घात करने वाले क्रूर ऐसे मुझको धिक्कार हो। मैं निंद्यतम से भी निंद्य हूँ" इस प्रकार का विचार करते हुए वह बैठ गया। "खाज से खुजली की भाँति लाभ से लोभ बढ़ता है," इस प्रकार वे दोनों पुनः लोभ से पृथ्वीतल पर घूमने लगे। अतिलोभ से यहाँ भी अनर्थ की उत्पत्ति होती है। लोभग्रस्त वे दोनों वैतरणी नदी के प्रवाह में उतरे। पहले लोभ के प्रवाह में डूबे हुए थे, अब वे नदी के प्रवाह में डूबे और मरकर तिथंच गति में गये। वहाँ कई भवों तक भ्रमण कर अन्त में मनुष्य भव को प्राप्त कर तुम दोनों मित्र हुए। .
पूर्व में उसने तुम्हारे वध का विचार किया था, इस कारण अब तुमने उसे समुद्र में गिराया। लेनदार के कर्ज को जिस प्रकार ब्याज सहित चुकाना पड़ता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति पूर्व में जिस प्रकार का कर्म करता है, उसे उस कर्म के फल को भोगना पड़ता है ।
तुम्हारी दो स्त्रियाँ तुम्हारे वियोग से राग भाव छोड़कर तापसी बन गयीं और मासक्षमण के पारणे मासक्षमण करने लगीं। विधवा बनने पर कुलस्त्रियों के लिए धर्म ही शरण है। कौन मूर्ख व्यक्ति मनुष्यभव को प्राप्त कर दो भवों को हारेगा?
एक बार तीव्र तृषा के कारण दीनता को प्राप्त गौरी ने दासी से बार-बार पानी मांगा। मध्याह्न समय होने से निद्रा के कारण दुविनीता की तरह उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। गौरी यद्यपि अल्पकोप वाली थी, फिर भी उसे बहुत क्रोध पाया। तपस्वी, रोगी, भूखे और प्यासे व्यक्ति को शीघ्र क्रोध पा जाता है। क्रोध से वह बोली-"अरे ! क्या तुझे किसी सांप ने डस लिया है ?