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श्राद्धविधि/३१२
. दोनों पुत्रों को अर्थ और काम के साथ धर्म का सेवन करना चाहिए, मानों यह बात विदित करने के लिए ही न पाता हो, ऐसे एक बार राजा जब सभा में बैठे हुए थे, तब द्वारपाल ने राजा को विज्ञप्ति की कि "द्वार पर गांगलि ऋषि गांग, श्रोत और संख्य नाम के सुशिष्यों के साथ प्राये हैं।" यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा की सूचना से उन्हें भीतर प्रवेश कराया गया।
राजा ने आसन आदि प्रदान कर उनका स्वागत किया और ऋषि ने भी 'कल्याण हो' इस प्रकार कहकर आशीर्वाद दिया। राजा ने तीर्थ व आश्रम की क्षेमकुशलता पूछी। उसके बाद राजा ने कहा- "हे मुनि ! आपका आगमन किस हेतु से हुआ है ?" तब पुत्री कमलमाला को बुलाकर और उसे पर्दे के पीछे रखकर ऋषि ने कहा,-"प्राज स्वप्न में गोमुख नाम के यक्ष ने मुझे कहा-"मैं मुख्य ऐसे विमलगिरि तीर्थ को जाने वाला हूँ।" मैंने कहा- "इस तीर्थ की रक्षा कोन करेगा ?" उसने मुझे कहा, "लोकोत्तर चरित्र वाले भीम और अर्जुन की भाँति तुम्हारी पुत्री के जो शुकराज और हंसराज नाम के पुत्र हैं, उनमें से एक को तू यहाँ ले आ, उसके माहात्म्य से यहाँ कोई उपद्रव नहीं होगा।" बड़ों की महिमा अपरम्पार होती है।
मैंने कहा- क्षितिप्रतिष्ठित नगर तो बहुत दूर है, मैं वहां कैसे जाऊँ ?" इस प्रकार कहने पर वह बोला, "हे मुनि ! वह नगर दूर होने पर भी नजदीक की तरह ही मध्याह्न में ही तुम मेरे प्रभाव से वहाँ जाकर आ जाओगे।" इतना कहकर यक्ष अदृश्य हो गया और प्रातःकाल मैं जगा। उसके बाद मैंने वहाँ से प्रस्थान किया और शीघ्र ही यहाँ आ गया। दिव्य प्रभाव से क्या सम्भव नहीं है? अतः हे राजन् ! दक्षिणा की तरह शीघ्र ही तुम मुझे कोई भी एक पुत्र प्रदान करो, जिससे बिना श्रम से ठण्डे प्रहर में ही मैं अपने आश्रम में पहुँच जाऊँ।"
छोटा होने पर भी अद्वितीय, बालक होने पर भी अत्यन्त पराक्रमी तथा हंस के समान उल्लसित ध्वनिवाला हंस बोला-“हे पिताजी ! तीर्थरक्षा के लिए मैं जाऊंगा।" यह बात सुनकर माता-पिता ने कहा, "हे वत्स ! हम तुम्हारे वचन से प्रतिप्रसन्न हैं।" ऋषि ने भी कहा"अहो ! बाल्यकाल में भी इसका कितना आश्चर्यकारी क्षात्र तेज है। अथवा सूर्य की तरह क्षत्रियों का तेज भी किसी वय की अपेक्षा नहीं रखता है। राजा ने कहा-“यह बालक है, अतः इसे कैसे भेजा जाय ?" बालक शक्तिमान होने पर भी स्नेह के कारण माता-पिता को उसके अपाय (कष्ट) की आशंका बनी रहती है। अहो ! प्रेम कदम-कदम पर भय को देखता है। क्या सिंहनी अपने शिशु के सिंह हो जाने पर भी अनिष्ट की शंका नहीं करती है ?
उसी समय सुदक्ष शुकराज उत्साहपूर्वक बोला-"मैं पहले से ही इस तीर्थ को नमस्कार करने की इच्छा करता हूँ और अब यह अवसर आ गया है।" "नृत्य के इच्छुक को मृदंग का नाद, भूखे को भोजन का आमंत्रण, निद्रालु को शय्या की प्राप्ति की तरह मेरे भाग्य से यह अवसर हाथ लगा है। मैं पूज्य (पिताश्री) के आदेश से वहाँ जाऊंगा।" यह बात सुनकर राजा ने मंत्रियों का मुख देखा तब मंत्रियों ने भी कहा-“ऋषिश्रेष्ठ गांगलि अर्थी हैं और आप दाता हो, तीर्थभूमि रक्षण करने योग्य है और शुकराज रक्षा करने वाला है अतः हमें इस कार्य में सम्मति दे देनी चाहिए।"
. दूध में घी-शक्कर की भाँति वचनों को सुनकर जाने के लिए उत्सुक शुकराज ने अश्रुपूर्ण नेत्र वाले माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया और वह ऋषि के साथ चल पड़ा। अर्जुन की भाँति तूणीर एवं धनुष को धारण करने वाला शुकराज थोड़ी ही देर में उस तीर्थ पर पा गया और उसकी आराधना करते हुए वहाँ रहा। शुकराजके प्रभाव से उस आश्रम में फल-फूल की खूब उत्पत्ति