Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 309
________________ श्राविधि/२६२ राजा ने कहा-“उसे प्रवेश करामो।" राजा के कहने पर द्वारपाल ने उस दूत को भीतर प्रवेश कराया। राजा को प्रणाम करने के बाद अपने कृत्य को जानने वाले उस सत्यवादी दूत ने कहा"देव ! देवपुर (स्वर्ग) के समान देवपुर नाम का एक नगर है। उस नगर में विष्णु के समान पराक्रमी विजयदेव नाम का राजा है। प्रीतिमती नाम की उसकी पटरानी है। उसने सन्नीति (साम, दाम, दण्ड और भेद) की तरह चार पुत्रों को जन्म दिया। उसके बाद हंसिनी के समान ज्ज्वल उभय पक्षवाली एवं सुन्दर लक्षण वाली हंसी नाम की कन्या उत्पन्न हई। अल्पवस्तू पर अधिक प्रीति होती है, इस नियमानुसार वह पुत्रों से भी अधिक प्रिय हुई। क्रमश: बढ़ती हुई वह आठ वर्ष की हुई। तब उसने एक दूसरी उत्तम पुत्री सारसी को जन्म दिया। मानों विधाता ने पृथ्वी और आकाश में से सार ग्रहण कर उन कन्याओं का निर्माण किया हो, इस प्रकार वे दोनों परस्पर उपमान और उपमेय थीं। उन दोनों की प्रीति भी इस प्रकार बढ़ने लगी कि वे दोनों शरीर का भेद भी दुःखदायी मानती थीं। ___ कामदेव रूपी हाथी के लिए क्रीडावन समान यौवन वय को प्राप्त होने पर भी हंसी उसके (सारसी के) वियोग के भय से विवाह के लिए तैयार नहीं हुई। क्रमशः सारसी भी युवावस्था को प्राप्त हुई। उन दोनों ने प्रेम से एक प्रतिज्ञा की कि हम दोनों का एक ही वर हो। उसके बाद राजा ने उन दोनों पुत्रियों के मनोहर वर की प्राप्ति के लिए स्वयंवर मण्डप की रचना की । स्वयंवर मण्डप की रचना इतनी श्रेष्ठ थी कि उसका वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। घास व धान्य आदि के तो इतने बड़े ढेर किये गये थे कि वे पर्वत के समूह जैसे लगते थे। राजा ने अंग, बंग, कलिंग, आंध्र, जालंधर, मरुस्थल, लाट, भोट, महाभोट, मेदपाट, विराट, गौड़, चौड़, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, कुरु, गुर्जर, आभीर, कीर, काश्मीर, गोल्ल, पंचाल, मालव, हरण, चीन, महाचीन, कच्छ, कर्णाटक, कोंकण, सपादलक्ष, नेपाल, कान्यकुब्ज, कुन्तल, मगध, निषध, सिंधु, विदर्भ, द्रविड़, उंड्रक आदि देशों के राजाओं को आमंत्रण दिया। (इतनी बात कहकर) दूत ने कहा- "हे राजन् ! मलयदेश के महाराजा ने आपको बुलाने के लिए मुझे भेजा है, अतः आप वहाँ पधारकर स्वयंवर को अलंकृत करें।" दूत के इस वचन को सुनकर-"मैं जाऊँ अथवा नहीं जाऊँ ? वह कन्या मुझे वरेगी या नहीं ?"-इस प्रकार कन्या की प्राप्ति के संशय से राजा का मन दुविधाग्रस्त हो गया। “पाँच के साथ जाना चाहिए।"--इस प्रकार विचार कर वह भी चल पड़ा। मार्ग में पक्षियों के प्रोत्साहन (शुभ शकुन ) से वह शीघ्र वहाँ पहुँच गया। राजा ने उन सब राजाओं का भव्य स्वागत किया। विमानों को अलंकृत करने वाले देवताओं की तरह उन्होंने स्वयंवर मण्डप के मंचों को अलंकृत किया। उसके बाद स्नान, विलेपन, शुद्ध वस्त्र व अलंकारों से विभूषित सुखासन पर बैठी हुई, ब्राह्मी व लक्ष्मी की तरह वे दोनों कन्याएँ स्वयंवर मण्डप में पाई।

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