Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 314
________________ श्रावक जीवन-दर्शन / २१७ भूख, प्यास, पैदलगमन, मार्ग की पीड़ा आदि से राजा व रानियाँ अत्यन्त व्याकुल हो गई । उस समय चिन्तातुर बने सिंह मंत्री ने आचार्य भगवन्त को कहा - "प्रभो ! युक्तिपूर्वक राजा को पारणा कराना चाहिए अन्यथा धर्म की अपेक्षा लोक में हँसी हो जायेगी ।" यह बात सुनकर आचार्य भगवन्त राजा के पास गये और बोले – “लाभ - अलाभ का विचार करो, अचानक किया हुआ कार्य प्रायः प्रामाणिक नहीं होता है, हर जगह सहसाकार आदि के अपवाद रखे गये हैं ।" शरीर से थका होने पर भी मन से नहीं थका हुआ राजा बोला - "हे प्रभो ! यह तो कमजोर के लिए उपदेश है, मैं तो अपने वचन का निर्वाह करने में समर्थ हूँ, मेरे प्राण जायें तो भी परवाह नहीं है किन्तु मेरा अभिग्रह नहीं जाना चाहिए ।" उस समय हंसी व सारसी ने भी अभिग्रह के निर्वाह के लिए अपने पति को प्रोत्साहित कर उन वीरपत्नियों ने अपना वीरपत्नीत्व बतलाया । "अहो ! राजा का मन धर्म में कितना एकनिष्ठ है ? अहो ! यह कितना धार्मिक परिवार है ? अहो ! इनका कितना सत्त्व है ?" इस प्रकार सभी लोगों ने राजा की प्रशंसा की । चिन्ता रूपी चिता से व्याकुल बना हुआ सिंहमंत्री रात्रि में सोचने लगा- "अब क्या होगा ? अब क्या करें ? " - - इस प्रकार की चिन्ताओंों से उसका हृदयकमल तपा हुआ था । उसी समय विमलाचल का अधिष्ठायक गोमुख यक्ष स्वप्न में साक्षात् प्रगट होकर सिंह मंत्री को बोला"हे मंत्रीश्वर ! चिन्ता मत करो । राजा के साहस से खुश हुआ मैं दिव्यशक्ति से विमलाचल तीर्थं निकट ला देता हूँ । प्रातःकाल चलने के साथ ही एक प्रहर में शत्रु जय महातीर्थ दिखाई देगा, वहाँ जिनेश्वर को नमस्कार कर सभी को अपना-अपना अभिग्रह पूरा करना है ।" मंत्री ने स्वप्न में ही कहा- "हे यक्ष ! यह बात तुम दूसरे लोगों को भी कहो जिससे वे सब लोग मान जायें ।” यक्ष ने दूसरों को भी यह स्वप्न दिया । यक्ष ने उस जंगल में पर्वत पर शत्र ु जय के समान ही दूसरा शत्र ुंजय बना दिया। देवताओं के लिए कौनसा कार्य असाध्य है ? देवों के द्वारा विकुर्वीत वस्तु एक पक्ष तक रहती है, परन्तु देवों द्वारा बनायी वस्तु तो रैवताचल पर रही अरिहन्त की प्रतिमा के समान दीर्घकाल तक भी रहती है । प्रातः काल होने पर आचार्य भगवन्त, राजा, मंत्री आदि तथा संघ के अन्य लोग भी परस्पर स्वप्न की बात करने लगे । सभी ने आगे प्रस्थान किया और आगे बढ़ने पर वहाँ पर वैसे ही उस तीर्थ को देखकर सभी बहुत खुश हुए। जिनेश्वर भगवन्त को नमस्कार करके एवं उनकी पूजा करके सभी ने अपने-अपने प्रभिग्रह पूर्ण किये । सबने ग्रपने देह को हर्ष-रोमांच से तथा आत्मा को सुकृत रूपी अमृत से भर दिया । कार्य सम्पन्न करके अपने वहाँ पर स्नात्र, ध्वजारोपण व मालारोपण आदि समस्त मुख्य आपको धन्य मानते हुए वे आगे बढ़े ।

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