Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 315
________________ श्राद्धविधि / २६८ राजा वहाँ से चला तो सही, किन्तु प्रभु के गुरण रूपी चूर्ण के कार्मण से नमस्कार करने की इच्छा से वापस आया । इस प्रकार मानों सात दुर्गंत (नरक) के पात से अपनी आत्मा के रक्षरण के लिए वह सात बार गया और वापस आया । राजा के सिंहमंत्री ने पूछा - "यह क्या ?' तब राजा ने कहा - "बालक जिस प्रकार माता को छोड़ने में अशक्त होता है, उसी प्रकार मैं भी इस तीर्थ को छोड़ने में अशक्त हूँ । अतः मेरे निवास के लिए यहीं पर नवीन नगर की स्थापना की जाय। कौन बुद्धिमान् प्रारणी निधान की तरह इष्ट स्थान को पाकर उसे छोड़ने की इच्छा करता है ।" उसके बाद मंत्री ने शास्त्रोक्त नीति अनुसार नगर बसा दिया क्योंकि अपने स्वामी की प्राज्ञा का कौन विचक्षण और विवेकी पुरुष लोप करता है ? कर ( Tax टैक्स) से रहित उस नगर में स्वार्थ व तीर्थ के लोभ से संघ सम्बन्धी और अन्य भी लोग वहाँ बस गये । उस नगर का विमलपुर नाम रखा गया। वही नाम प्रमारण होता है जिसकी सार्थकता हो । द्वारका नगरी में कृष्ण महाराजा की तरह विशाल राज्य ऋद्धि को भोगता हुआ जिनेश्वर के ध्यान में लीन वह राजा सुखपूर्वक वहाँ रहा। उस मन्दिर में कलहंस की तरह मधुरभाषी एक तोता रहता था जो राजा के मन को खुश करने वाला (क्रीडास्थल ) था । मन्दिर में बैठने पर भी तोते की क्रीड़ा के रस के कारण राजा का अरिहन्त ध्यान धुएँ से हुए चित्र की भाँति मलिन हो गया । मलिन सचमुच, राजा ने अन्तिम समय प्राने पर ऋषभदेव प्रभु के चरणों में अनशन स्वीकार किया । धर्मीजनों की यही रीति है । राजा की धैर्यशालिनी दोनों स्त्रियाँ नियमिरणा कराने में तत्पर थीं और नवकार मंत्र सुनाती थीं । सद्बुद्धिवाले पुरुष समयज्ञ ( अवसर के ज्ञाता) होते हैं । उसी समय मन्दिर के शिखर पर बैठे हुए तोते ने आवाज की । दैवयोग से राजा का मन उस तोते की ओर चला गया । ध्यान से आकृष्ट होने के कारण राजा मरकर तोते के रूप में पैदा हुआ । अहो ! अपनी छाया की तरह भवितव्यता का उल्लंघन करना कठिन ही है । पण्डित पुरुषों ने कहा है-अन्त में जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही आत्मा की गति होती है । पण्डितों की यह उक्ति मानों गलत सिद्ध न हो जाय इसीलिए राजा मरकर (तोते के ध्यान से ) तोता हो गया । जिनेश्वरों ने कहा है- तोता-मैना आदि के साथ क्रीड़ा करना अनर्थ का हेतु है । राजा सम्यग्रष्टि था, फिर भी उस क्रीड़ा के कारण उसकी वैसी गति हो गयी। उस प्रकार के धर्म का योग होने पर भी उसकी वह गति हो गयी, इससे जीव की विचित्र गति और जिनभाषित स्याद्वाद स्पष्ट प्रगट होता है । इस तीर्थ की यात्रा से दुर्गति ( तियंच व नरक) खत्म हो जाती है, परन्तु उसका पुनः बंध करे तो उसे भोगना भी पड़ता है। इतने मात्र से उस तीर्थ का माहात्म्य कम नहीं हो जाता है, वैद्य करके भी जो कुपथ्य खाकर बीमार हो जाता है तो उससे वैद्य का अपयश नहीं होता है । IT

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