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श्राविधि/२९६
जिसने इस तीर्थ को नमस्कार नहीं किया वह जन्मा हुअा होने पर भी अजन्मा ही है। जीवित होने पर भी मरे हुए के समान ही है और विद्वान् होने पर भी मूर्ख ही है। दान, शील, तप, तीव्रक्रिया आदि यदि कष्टसाध्य है तो सुखपूर्वक कर सको, ऐसी तीर्थयात्रा आदरपूर्वक क्यों नहीं करते हो?
____जो व्यक्ति पैदल चल कर इस तीर्थ की विधिपूर्वक सात यात्रा करता है, वह पुरुष धन्य व जगत् मान्य होता है। कहा भी है-"जो व्यक्ति इस तीर्थ की निर्जल छ8 से सात यात्राएँ करता है, वह तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करता है।"
जिस प्रकार काली मिट्टी वाली भूमि वर्षा के जल से मृदु हो जाती है, उसी प्रकार भद्रक प्रकृति वाला होने से गुरु की वाणी सुनकर जितारि का हृदय कोमल हो गया।
सूर्य समान गुरु की वचन रूपी सूर्यकिरणों से राजा के हृदय में से मिथ्यात्व का अन्धकार दूर हो गया और वह सम्यक्त्व के प्रकाश से युक्त हो गया। समकित की प्राप्ति होने से राजा का मन शत्र जय की यात्रा के लिए अत्यन्त लालायित हो उठा। उसने मंत्रियों को कहा- “यात्रा की शीघ्र तैयारी करो।"
उसी समय राजा ने अभिग्रह किया कि "पैदल चलकर शत्रु जय महातीर्थ के आदिनाथ प्रभु के दर्शन करने के बाद ही मैं अन्न-जल ग्रहण करूंगा।"
राजा के इस अभिग्रह को सुनकर हंस-सारसी तथा अन्य अनेक लोगों ने भी उस प्रकार का अभिग्रह ले लिया। वास्तव में, जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा होती है।
'जिस कार्य में कुछ भी सोचना पड़े, वह कैसा भाव ?' मानों इस प्रकार विचार करके राजादि ने अभिग्रह को ग्रहण करने में किसी भी प्रकार का विचार नहीं किया।
मन्त्रियों ने राजा को समझाया-"अपना नगर कहाँ ? और शत्रु जय महातीर्थ कहाँ ? अहो ! अचानक इस प्रकार के अभिग्रह का महा आग्रह क्यों ?'
आचार्य भगवन्त ने भी कहा-"राजन् ! सोच-विचार कर अभिग्रह धारण करना चाहिए। बिना सोचे किये गये कार्य में बाद में पश्चाताप भी हो जाता है, उसमें कुछ भी लाभ नहीं है, बल्कि आर्तध्यान से नुकसान ही है।"
महाउत्साही उस राजा ने कहा- "हे प्रभो ! पहले अभिग्रह ले लिया है, अब उस पर विचार करने की आवश्यता नहीं है। जल पीने के बाद घर की पूछताछ करना और हजामत कराने के बाद नक्षत्र की परीक्षा करने के समान अभिग्रह लेने के बाद कुछ भी सोचना व्यर्थ है। मैं बिना पश्चाताप किये अपने अभिग्रह को गुरुमहाराज के चरणपसाय से पूर्ण करूंगा।" यद्यपि सूर्य का सारथी पगरहित है तथापि क्या वह सूर्य के प्रसाद से आकाश का अन्त नहीं पाता है ?
इतना कहकर बलवान राजा भी संघ के साथ चल पड़ा। कर्म रूपी शत्रुओं पर चढ़ाई करने की तरह वह राजा शीघ्रता से आगे बढ़ता हुआ कुछ ही दिनों में काश्मीर देश के भीतरी जंगल तक जा पहुंचा।