Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 321
________________ श्राद्धविषि/३०४ मुनीश्वर ने कहा-"पृथ्वी पर सूर्य की तरह बोध करने वाले मेरे केवलज्ञानी गुरु देश के मध्य में रहे हुए हैं। मैं भी अपने अवधिज्ञान से जानकर कहता हूँ कि हे महानुभाव ! बन्दर ने जो कुछ भी कहा है वह प्राप्तवचन की तरह एकदम सत्य है।" "यह कैसे ?" इस प्रकार पूछने पर मुनिवर ने कहा- "हे विद्वान् ! पहले तू अपनी पुत्री संबंधी घटना सन–तम्हारे पिता ने तुम्हारी माता को छुड़ाने के लिए जब गुप्त रूप से प्रस्थान किया तब वे युद्ध में निर्दयी ऐसे समर पल्लीपति के पास उपस्थित हुए। 'ऐसा वीर पुरुष हो उचित है' इस प्रकार विचार कर उसे द्रव्य प्रदान किया। उसके बाद उस पल्लोपति ने भी श्रीमन्दिरपुर पर चढ़ाई की। समुद्र की प्रबल वेलाओं की भाँति पल्लीपति के आगमन को देख नगर की प्रजा एकदम भयभीत हो गयी और जिस प्रकार भव्य जीव संसार से मोक्ष में जाने की इच्छा करता है, उसी प्रकार वे नगरवासी भी सुरक्षित स्थान में जाने की इच्छा करने लगे। उस समय पुत्री सहित तुम्हारी स्त्री गंगातट पर रहे सिंहपुर नगर में अपने पिता के घर जल्दी-जल्दी चली गयो। वहाँ पर वह बहुत वर्षों तक रही। पति के वियोग में स्त्री के लिए पिता व भाई ही शरण है। एक बार प्राषाढ़ में तुम्हारी पुत्री को गाढ़ विषधर सर्प ने काटा। धिक्कार हो दुष्ट जीवों के दुष्टकर्म को। वंध्या को पुत्रप्राप्ति को तरह, निश्चैतन्य बनो उस कन्या का माता आदि ने बहुत उपचार किया फिर भी वह ठीक नहीं हुई। सर्प से काटे हुए मनुष्य को अचानक चिता पर नहीं जलाना चाहिए क्योंकि आयुष्य बलवान हो तो वह जीवित भी हो सकता है, अतः उसे नीम के पत्तों से लपेट कर पेटी के अन्दर डालकर गंगा के प्रवाह में बहा दिया। उस समय बादलों की तीव्र वृष्टि से गंगा में बाढ़ आ गयी और वह दुर्नीति की तरह तट पर रहे वृक्षों को उखाड़ने लगी। वायु से प्रेरित नाव की भाँति वह पेटी बाढ़ के कारण समुद्र में आ गयी और वह तुम्हारे हाथ लग गयी। आगे की घटना तुम स्वयं जानते ही हो। यह तुम्हारी पुत्री है। "अब अपने चित्त को स्थिर कर माता का वृत्तान्त सुनो। पल्लोपति को दुर्भेद्य सेना ज्योंही निकट पायी त्योंही सूरकान्त राजा निस्तेज हो गया। उसने पर्वत की भाँति किले को तैयार किया और नगर को तृण, धान्य, ईधन आदि से भर दिया। किले के भीतर उसने बलवान योद्धाओं को नियंक्त कर दिया। जो राजा सामने प्राकर नहीं लड़ सकता, उसकी यही रीति होती है। दुष्कर्म को भेदने में मुनि को कितनी देर ! बस, इसी प्रकार पल्लीपति ने भी चारों ओर से प्राक्रमण कर राजा के किले को भेद दिया। "मदोन्मत्त हाथी जिस प्रकार अंकुश के प्रहारों को भी नहीं गिनता है, उसी प्रकार पल्लीपति की सेना ने भी दुर्ग में रहे सैनिकों के बाण-प्रहारों को नहीं गिना । उन्होंने मुद्गरों से नगर के द्वार को तोड़ डाला और शीघ्र ही नदी के प्रवाह की भांति नगर के भीतर प्रवेश किया। ___ स्रीप्राप्ति की इच्छा से तेरा पिता नगर में जा रहा था, तभी अचानक ललाट में बाण लग जाने से वह शीघ्र ही मर गया। मनुष्य सोचता कुछ और है और भाग्य को कुछ और ही मंजूर होता है। प्रिया के लिये किया गया प्रयत्न उसी के आत्मघात के लिए हो गया। कथासंग्रह गाथाकार कहते हैं "हाथी के हृदय में कुछ और था, शिकारी के हृदय में कुछ और था, सर्प के हृदय में कुछ और था, सियाल के हृदय में कुछ और था और कृतान्त के हृदय में कुछ और था।

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