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परिशिष्ट-१
* शुकराजा की वार्ता * # कर्मन् को गत न्यारी है
(1) आश्रम में गमन भरतक्षेत्र में पहले धनधान्य से समृद्ध क्षितिप्रतिष्ठित नाम का एक नगर था। इस नगर में निर्दयता केवल तलवार में, कुशीलता (पृथ्वी का सम्बन्ध) केवल हल में, जड़ता (जलता) केवल जल में और बन्धन केवल फूल में ही था किन्तु ये दुर्गुण किसी नगरवासी में नहीं थे। उस नगर में कामदेव के समान रूपवान व शत्रुओं के लिए अग्नि समान ऋतुध्वज राजा का पुत्र मृगध्वज राज्य करता था। राज्यलक्ष्मी, न्यायलक्ष्मी और धर्मलक्ष्मी रूप इन तीन स्त्रियों ने मानों स्पर्धा नहीं कर रही हों, इस प्रकार अत्यन्त उत्साहपूर्वक राजा से पाणिग्रहण किया था।
एक बार क्रीड़ारस युक्त बसन्तऋतु में राजा अपने अन्तःपुर के साथ क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में गया। जिस प्रकार हाथी हथिनियों के साथ क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार राजा भी अन्तःपुर सहित विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करने लगा। पृथ्वी के लिए छत्रसमान एक सुन्दर आकार वाले आम्रवृक्ष को देखकर वह विद्वान् राजा इस प्रकार बोला- "हे पृथ्वी के कल्पवृक्ष ! मीठे फल देने वाले हे आम्रवृक्ष ! तुम्हारी छाया जगत् को बहुत प्यारी है, तुम्हारे पत्तों का समूह मंगल गिना जाता है, मंजरी का उद्गम असाधारण फल को पैदा करने में प्रबल निमित्त है, तुम्हारा प्राकार भी मनोहर है अतः पृथ्वी पर के वृक्षों में तुम मुख्य हो।"
"हे सुन्दर आम्रवृक्ष ! अपने पत्र, फल, फूल, काष्ठ व छाया आदि सम्पूर्ण अवयवों से प्रतिदिन जगत् के जीवों पर परोपकार में रत होने से तुम्हारे समान स्तुतिपात्र अन्य कौन है ? उन बड़े-बड़े वृक्षों को भी धिक्कार हो और उन दुष्ट कवियों को भी धिक्कार हो जो अपने पापी वचनों से तुम्हारे साथ स्पर्धा करते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं।"
___ इस प्रकार उस पाम्रवृक्ष की प्रशंसा कर कल्पवृक्ष की छाया में बैठे देवता की तरह वह राजा उस वृक्ष की छाया में अपने अन्तःपुर परिवार के साथ बैठा ।
सुन्दर शृगार वाली मानों जङ्गम (चलता-फिरता) शृंगार न हो इस प्रकार अपनी सुन्दर अन्तःपुर की स्त्रियों को देखकर वह राजा अपने मन में सोचने लगा-"पृथ्वी के सारभूत की तरह मेरी ये स्त्रियाँ हैं, मुझे ये सुन्दर स्त्रियाँ प्राप्त हुई हैं, सचमुच भाग्य की मुझ पर बड़ी कृपा है। इस प्रकार की सुन्दर स्त्रियाँ अन्य किसी के नहीं हैं, सभी ग्रहों में तारे चन्द्र की ही पलियाँ हैं।"
इस प्रकार विचार करते हुए राजा का मन वर्षाऋतु में बाढ़ से उछलने वाली नदी की तरह अहंकार से उछलने लगा।