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धाविषि/२८४
"तीन जगत् के एक नाथ ! आपकी जय हो! तीनों लोकों पर उपकार करने में समर्थ सुन्दर एवं अनन्त अतिशय की लक्ष्मी से सहित ! नाभिराजा के विपुल कुल रूपी कमल को उल्लसित करने वाले सूर्यसमान हे प्रभो ! आपकी जय हो। आप त्रिभुवनजन के लिए स्तवनीय हो। आप मनोहर हो। श्री मरुदेवा माता की कुक्षि रूपी सरोवर के राजहंस ! आपकी जय हो । तीन लोक के समस्त लोगों के मन रूपी चक्रवाक पक्षी के शोक को दूर करने वाले सूर्य ! आपकी जय हो। आप अन्य समस्त देवताओं के गर्व को चूर करने वाले हो।
"शुद्ध असोम और अद्वितीय माहात्म्यवाली लक्ष्मी के विलास के लिए सरोवर समान हे प्रभो! आपकी जय हो।"
"अपनी भक्ति के रस के विस्तार से स्पर्धापूर्वक वन्दन करने वाले देवताओं तथा मनुष्यों के मुकुटों में जड़े हुए रत्नों की कान्ति रूपी निर्मल जल से धुले गये हैं चरण कमल जिनके, ऐसे हे प्रभो! समस्त राग-द्वेषादि दोष-मल को नष्ट करने वाले हे प्रभो! आपकी जय हो।'
"अपार संसार रूपी पारावार में डूबते हुए प्राणियों के लिए श्रेष्ठ यानपात्र समान ! श्री सिद्धि रूपी वधू के वर ! अजर ! अमर! अचर! निडर ! अपर! अपरम्पर ! परमेश्वर! परमयोगीश्वर ! हे युगादि जिनेश्वर ! आपको नमस्कार हो।"
इस प्रकार आनन्द से मनोहर गद्यरीति से जिनेश्वर परमात्मा की स्तुति कर ऋषि ने सरलहृदयी राजा को कहा-"ऋतुध्वज राजा के कुल में ध्वज समान मृगध्वज! हे राजन् ! हे वत्स ! तुम मेरे आश्रम में चलो। मेरे भाग्य से तुम मेरे अचानक अतिथि बने हो। मैं अपने उचित तुम्हारा अतिथि सत्कार करूंगा। तुम्हारे जैसे अतिथि भाग्य से ही प्राप्त होते हैं।"
__ राजा सोचने लगा-"ये महर्षि कौन हैं ? किस कारण मुझे आग्रहपूर्वक बुला रहे हैं ? ये मेरे नाम आदि को कैसे जानते हैं ?" इस प्रकार आश्चर्य में डूबा हुआ राजा उस ऋषि के साथ आश्रम में गया क्योंकि आर्य पुरुष किसी की प्रार्थना का भंग करने में भीरु होते हैं।
वहाँ सदा यशस्वी ऐसे महातपस्वी ऋषि ने तेजस्वी राजा का अच्छी तरह से अतिथि सत्कार किया। उसके बाद अत्यन्त प्रीति वाले उस ऋषि ने राजा को कहा--"यहाँ आकर आपने मुझे कृतार्थ कर दिया। हमारे कुल में अलंकार समान विश्व के प्राणियों के लिए वशीकरण समान हमारे जीवन के प्रारणरूप, कल्पवृक्ष के फूलों की माला समान इस कमलमाला नाम की कन्या के साथ आप पाणिग्रहण करें, क्योंकि उसके लिए आप ही योग्य हैं।"
"मन को प्रिय वस्तु ही वैद्य ने बतलायो" इस प्रकार मानते हुए भी उस राजा ने ऋषि के आग्रह से ही वह बात स्वीकार की क्योंकि सत्पुरुषों की यही रीति होती है।
उसके बाद उस ऋषि ने खुश होकर विकसित यौवन वाली अपनी कन्या राजा को प्रदान की। शुभ कार्य में विलम्ब कौन करेगा?
वल्कल के वस्त्रों को धारण करने वाली उस कन्या को प्राप्त कर भी राजा अत्यन्त खुश हुप्रा । राजहंस की प्रीति कमलमाला के साथ ही योग्य है ।