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श्रावक जीवन-दर्शन / २८३
दूर रहे पुरुष की तरह किसी कारणवश तोते की बात राजा को छोड़कर अन्य किसी ने नहीं सुनी। अतः “आज राजा को क्या हो गया है और राजा कहाँ जा रहा है ?" इस बात से विह्वल बने मंत्री मादि कुछ दूरी तक राजा के पीछे जाकर लौट आये ।
आगे-आगे तोता और पीछे-पीछे राजा, इस प्रकार चलते हुए कुछ ही देर में पवन की तरह वे दोनों 500 योजन चले गये । इतनी दूरी पार करने पर भी किसी दिव्य प्रभाव से राजा मौर घोड़ा दोनों ही लेश भी नहीं थके । जिस प्रकार कर्म से खिंचा हुआ प्राणी भवान्तर में जाता है, उसी प्रकार विघ्नरक्षक उस पक्षी की सहायता से राजा भयंकर जंगल में पहुँच गया ।
(2) कमलमाला से लग्न
सज्जन पुरुषों में भी पूर्वभव के संस्कार कितने प्रबल होते हैं ?" का निर्णय नहीं होने पर भी वह राजा उस तोते के पीछे दौड़ पड़ा ।
"अहो !
स्थान श्रादि
उस जंगल में मानों मेरुशिखर प्राया हो ऐसा स्वर्णमय दिव्य कान्तिमान् प्रादिनाथ प्रभु का चैत्य था । उस मन्दिर के कलश पर बैठकर वह तोता बोला - "हे राजन् ! जीवन की शुद्धि के लिए तुम प्रादिनाथ प्रभु को वन्दन करो ।" राजा भी उस तोते की गमन की उत्सुकता को जानकर घोड़े पर बैठकर ही प्रादिनाथ प्रभु को प्रणाम करने लगा । राजा की यह चेष्टा जानकर राजा के हितेच्छुक उस पक्षी ने मन्दिर में जाकर प्रभु को प्रणाम किया । यह देख राजा भी घोड़े पर से नीचे उतर कर तोते के पीछे मन्दिर में गया ।
वहाँ मरिणमय आदिनाथ प्रभु की अनुपम - प्रतिमा को देख खुश होकर राजा इस प्रकार स्तुति करने लगा -- "हे नाथ ! एक मोर आपकी स्तुति के लिए हृदय में उत्सुकता है और दूसरी घर मुझ में निपुणता का प्रभाव है, अतः एक प्रोर भक्ति श्रौर दूसरी ओर शक्ति का अभाव होने से मेरा मन भापकी स्तुति करने में डोलायमान हो रहा है तो भी हे प्रभो ! मैं अपनी शक्ति के अनुसार आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, क्या मच्छर भी अपनी गति के अनुसार प्रकाश में नहीं उड़ता है ?"
"हे प्रभो ! कल्पवृक्ष तो परिमित वस्तु देने वाला है, जबकि आप तो अपरिमित वस्तु देने वाले हो अतः कल्पवृक्ष से आपकी उपमा कैसे दी जाय ? आप तो किसी से भी उपमेय नहीं हो ।” "आप किसी पर अनुग्रह नहीं करते हो और न ही कुछ देते हो फिर भी सभी लोग श्रापकी आराधना करते हैं, अहो ! आपकी यह रीति अद्भुत ही है। आप निर्मम होने पर भी जगत् के रक्षक और निःसंग होने पर भी जगत् के प्रभु कहलाते हों । लोकोत्तर स्वरूप के धारक तथा रूप रहित श्रापको नमस्कार हो ।"
पास ही श्राश्रम में रहे गांगली ऋषि ने राजा की यह उदार स्तुति मानन्द से सुनी । उसके बाद कहीं से भी संकेत को प्राप्तकर गांगली ऋषि प्रभु के मन्दिर में आये । वे ऋषि जटाधारी और वल्कल वस्त्रधारी मानों दूसरा महादेव ही लगते थे ।
ऋषि ने भी भक्तिपूर्वक ऋषभदेव प्रभु को वन्दन किया और पवित्र विद्या वाले उन्होंने सुन्दर, निरवद्य गद्य रचना के द्वारा प्रभु की इस प्रकार स्तुति की ।