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श्रावक जीवन-दर्शन/२८५
मानन्दपूर्वक तापसीवृन्द ने धवल-मंगल गीत गाये और गांगली ऋषि ने योग्य विधि-विधान किये। इस प्रकार राजा के साथ कन्या का पाणिग्रहण कराकर करमोचन के प्रसंग पर ऋषि ने पुत्रप्राप्ति के लिए एक मंत्र प्रदान किया। ऋषियों के लिए अन्य देयवस्तु और क्या हो सकती है ?
विवाह-कार्य पूर्ण होने पर उस राजा ने महर्षि को कहा-"मैं अपने राज्य को शून्य छोड़कर शीघ्र यहाँ पा गया हूँ। अतः शीघ्र ही जाने की तैयारी करो। ऋषि ने कहा "हमारे जैसे दिगम्बरों को तैयारी करने में कितनी देर ?" परन्तु हे राजन् ! तुम दिव्य वेषधारी हो और यह कन्या वल्कल के वेष वाली है। इसे देख-देखकर यह अत्यन्त दु:खी हो रही है। इसने तो केवल वृक्षों का सिंचन ही किया है और तापसों की ही रीति-नीति को देखा है, अतः यह जन्म से ही भोली है और तुझ पर अत्यन्त प्रेमवाली है, इस कारण अन्य रानियों (सौत) से इसका पराभव नहीं होना चाहिए।"
राजा ने कहा-"मन्य रानियों से इसकी पराभूति (श्रेष्ठ समृद्धि) होगी, परन्तु इसका पराभव कभी नहीं होगा। आपके वचन का लेश भी खण्डन नहीं होगा।" इस प्रकार चतुर वचनों के द्वारा तापस को खुशकर तापसी मादि की प्रीति के लिए स्पष्ट वचनों से बोला, "अपने स्थान में जाकर मैं इसके समस्त मनोरथों को पूर्ण करूंगा। यहां पर तो वेष प्रादि भी कहाँ से मिल सकते हैं ?" खेदपूर्वक ऋषि ने कहा, "मुझे धिक्कार हो, निर्धन ऐसा मैं इसके लिए वेष भी तैयार नहीं करा सका।" इस प्रकार बोलते हुए ऋषि की आँखों में से दु:ख के प्राँसुओं की धारा बहने लगी। उसी समय पास ही के पाम्रवृक्ष पर से जलवृष्टि के समान दिव्य वस्त्र व अलंकारों की श्रेणी गिरने लगी। यह देखकर सभी माश्चर्य पाने लगे और इस कन्या के अनुत्तर भाग्य का निर्णय किया। बादलों से जल की तरह वृक्ष पर से फल गिर सकते हैं किन्तु वस्त्र अलंकार तो कभी गिरते नहीं देखा। महो! पुण्य का प्रकर्ष होने पर क्या पाश्चर्य है ?"
कहा भी है-"इस पृथ्वी पर पुण्य से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाता है, क्या राम के पुण्य से समुद्र में मेरु समान पर्वत नहीं तैरे थे?"
उसके बाद राजा प्रसन्नचित्त महर्षि और अपनी पत्नी के साथ उस मन्दिर में गया और बोला-"हे प्रभो! आपके पावन.दर्शन मुझे शीघ्र प्राप्त हों और पत्थर पर खुदी हुई मूर्ति के समान मेरे चित्त में आपकी मूर्ति सदैव स्थिर हो।" इस प्रकार कहकर अपनी पत्नी के साथ प्रथम तीर्थंकर परमात्मा को प्रणाम कर जिनमन्दिर से बाहर आया और उसने तापस को मार्ग पूछा। तापस ने कहा-"मुझे मार्ग प्रादि का पता नहीं है।" राजा ने पूछा-"तो फिर मेरे नाम मादि को कैसे जानते हो?"
ऋषि ने कहा-“हे राजन् ! सुनो एक बार इस मनोहर तारुण्य वाली कन्या को देखकर मैंने सोचा, “इस कन्या के अनुरूप वर कौन होगा?"
तभी आम्रवृक्ष पर बैठा तोता बोला
"पाप व्यर्थ चिन्ता न करें। ऋतुध्वज राजा के पुत्र मृगध्वज को मैं माज ही जिनमन्दिर में लाने वाला हूँ। जिस प्रकार कल्पलता कल्पवृक्ष को वरने योग्य है उसी प्रकार विश्व में श्रेष्ठ उसी वर के लिए यह कन्या योग्य है।" इतना कहकर वह तोता चला गया और उसके बाद प्राप