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श्रावक जीवन-दर्शन/२७९
* ग्रन्थकार की प्रशस्ति * जगत में 'तपा' के नाम से जगच्चन्द्रसूरि प्रसिद्ध हुए हैं, उनकी पाटपरम्परा में अनुक्रम से श्री देवसुन्दर सूरि प्रख्यात हुए ॥१॥
देवसुन्दर सूरि महाराज के पांच शिष्य थे। उनमें प्रथम ज्ञान के सागर समान ज्ञानसागर नाम के शिष्य थे, जिन्होंने अनेक शास्त्रों की अवणि रूपी लहरों को प्रगट कर अपने नाम को सार्थक किया ॥२॥
दूसरे शिष्य श्री कुलमण्डन सूरि थे, जिन्होंने आगम गत विविध पालावों का समुद्धार कर नवीन ग्रन्थ की रचना की। तीसरे शिष्य श्री गुणरत्न सूरि थे ।।३।।
गुणरत्नसूरि म. ने षड्दर्शनसमुच्चय की टीका, हैम व्याकरण के अनुसार क्रियारत्न समुच्चय आदि विचार-निचयों को प्रगट किया। वे श्री भुवन सुन्दरादि शिष्यों के विद्यागुरु थे ।।४।।
अतुल महिमा एवं अच्छे चारित्री श्री सोमसुन्दर सूरि नाम के चौथे शिष्य हुए, जिनसे साधु-साध्वियों का परिवार दोनों प्रकार से (गुण एवं संख्या से) भली प्रकार विस्तृत हुआ ॥५॥
यतिजीत कल्पवृत्ति आदि ग्रन्थों के रचयिता ऐसे पाँचवें शिष्य श्री साधुरत्न सूरि हुए जिन्होंने अपने हाथ का पालम्बन देकर भवकूप में डूबते हुए मुझ जैसे (ग्रन्थकार) का उद्धार किया ॥६॥
पूर्वोक्त पाँच शिष्यों के गुरु श्री देवसुन्दर सूरि की पाट पर युगवीर पदवी को प्राप्त श्री सोमसुन्दर सूरि हुए। उनके भी पाँच शिष्य थे ।।७।।
'संतिकरं' की रचना द्वारा मारी के रोग को दूर करने वाले सहस्रावधानी आदि होने के कारण पूर्वाचार्यों की महिमा को धारण करने वाले श्री मुनिसुन्दर सूरि प्रथम शिष्य थे ॥८॥
संघ व गच्छ के कार्यों में अप्रमत्त ऐसे श्री जयचन्द्र सूरि थे और दूर क्षेत्रों में विहार करने से गण (गच्छ) पर उपकार करने वाले श्री भुवनसुन्दर सूरि थे ।।६।।
उन्होंने विषम 'महाविद्या विडम्बना' रूपी सागर में प्रवेश कराने वाली नाव के समान टीका की रचना की है। उनकी ज्ञाननिधि का मैंने (ग्रन्थकार ने) तथा अन्य शिष्यों ने आश्रय किया था ॥१०॥
एक अंग वाले होने पर भी ग्यारह अंग वाले थे अर्थात् ग्यारह अंग के अभ्यासी थे। ऐसे चौथे शिष्य श्री जिनसुन्दर सूरि हुए तथा निर्ग्रन्थ होने पर भी ग्रन्थों की रचना करने वाले पाँचवें शिष्य श्री जिनकोति सूरि हुए ॥११॥
पूर्वोक्त पाँच गुरुपों को कृपा प्राप्त कर संवत् १५०६ में रत्नशेखर सूरि ने श्राद्धविधि सूत्र की टीका रची ॥१२॥