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श्रावक जीवन-दर्शन/२७७
क्रमशः आहार का त्याग द्रव्य सल्लेखना है और क्रोधादि कषायों का त्याग भाव सल्लेखना है। कहा है-“सल्लेखना नहीं होने पर मृत्यु के समय अचानक धातुओं का शोषण होने से प्राणी को अन्तिम समय में प्रार्तध्यान हो जाता है। हे आत्मन् ! न तो मैं तेरे शरीर की प्रशंसा करता हूँ कि यह शरीर कितना अच्छा है ! और न ही इसकी निन्दा करता हूँ कि 'यह अंगुली कैसे टूट गयी ?' तुम तो भाव सल्लेखना स्वीकार करो।"
अशुभ स्वप्न, शास्त्रीय-संकेत व देवता के सूचन आदि से अपनी मृत्यु के निकटकाल को जानना चाहिए।
कहा भी है-खराब स्वप्नों से प्रकृति में परिवर्तन आने से अशुभ निमित्तों से, खराब ग्रहों से प्राणवायु में विपरीतता आने से मृत्यु की निकटता समझनी चाहिए ।
इस प्रकार सल्लेखना करके समस्त श्रावक धर्म के उद्यापन की तरह अन्त में भी संयम स्वीकार करना चाहिए।
कहा है-“एक दिन के लिए भी जीव अनन्यमनस्क होकर प्रव्रज्या स्वीकार कर लेता है तो वह कदाचित् मोक्ष प्राप्त न करे तो भी अवश्य वैमानिक होता है।"
नल राजा के भाई कुबेर के पुत्र की अभी ही शादी हुई थी, परन्तु “पाँच दिन का ही तुम्हारा आयुष्य है"-इस प्रकार ज्ञानी के वचन को सुनकर उन्होंने दीक्षा स्वीकार कर ली और मोक्ष गये।
ज्ञानी ने कहा-"तुम्हारा नौ प्रहर ही आयुष्य है"- इस बात को जानकर हरिवाहन राजा ने दीक्षा स्वीकार कर ली और मरकर सर्वार्थसिद्ध विमान में चला गया।
संस्तारक दीक्षा (संथारा करने के बाद दीक्षा) के अवसर पर अपनी शक्ति अनुसार धर्म में व्यय करना चाहिए।
थराद के प्राभू संघवी ने संलेखना के अवसर पर सात करोड़ द्रव्य का सात क्षेत्रों में व्यय किया था।
जिसे संयम का योग नहीं है, वह संलेखना करके शत्रजय आदि तीर्थस्थान में जाकर निर्दोष भूमि पर विधिपूर्वक चार प्रकार के आहार के त्याग रूप अनशन का आनन्द प्रादिश्रावक की तरह स्वीकार करे।
कहा है-"तप व नियम से मोक्ष होता है, दान से उत्तम भोग प्राप्त होते हैं। देवपूजा से राज्य और अनशन पूर्वक मरने से इन्द्रत्व की प्राप्ति होती है।" लौकिक शास्त्र में भी कहा है"हे अर्जुन ! अन्त समय में जल में मृत्यु पाने से सात हजार वर्ष तक, अग्नि में मृत्यु पाने से दस हजार वर्ष तक, हवा में मृत्यु पाने से सोलह हजार वर्ष तक, गोग्रह (गाय के कलेवर में घुसकर मरना) द्वारा मृत्यु पाने से अस्सी हजार वर्ष तक शुभ गति पाता है और अनशनपूर्वक मरने से अक्षयगति प्राप्त करता है।"
उसके बाद सर्व अतिचारों का परिहार कर के चतुःशरणादि की आराधना करे । दश द्वार वाली अन्तिम पाराधना इस प्रकार कही गयी है: