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श्राद्धविधि/२४२
करना चाहिए। अनेक प्रकार के गीत व नृत्य आदि उत्सव करने चाहिए। तीर्थ में उपवास, छ? आदि तप करना चाहिए। करोड़ अथवा लक्ष चावल आदि विविध वस्तु उद्यापन में रखनी चाहिए।
अनेक प्रकार के एक सौ आठ, चौबीस, बावन, बहोत्तर की संख्या में फल आदि तथा समस्त भोज्य सामग्री से भरे हुए थाल आदि प्रभु के आगे रखने चाहिए। रेशमी चंदरवा, पहेरामरणी, अंगलूछन, दीपक हेतु तैल, धोती, चन्दन, केसर, भोग, पुष्प की छाब, पिङ्गानिका, कलश, धूपदानी, भारती, आभूषण, प्रदीप, चामर, विशेष प्रकार का कलश, थाली, कटोरी, घंट, झल्लरी, पटह आदि वाद्य-यन्त्र देने चाहिए । देवकुलिका आदि बनानी चाहिए। सुथार आदि का सत्कार करना चाहिए। तीर्थसेवा करनी चाहिए। नष्ट होते हुए तीर्थ के अङ्गों का उद्धार करना चाहिए। तीर्थरक्षकों का बहुमान करना चाहिए। तीर्थ में आमदनी का प्रवर्तन करना चाहिए तथा सार्मिकों का वात्सल्य करना चाहिए। गुरु व संघ की पहेरामणी आदि से भक्ति करनी चाहिए। जैनों के याचकों को (भोजक आदि) तथा दीन आदि की उचित दान आदि देना चाहिए। इस प्रकार अनेक धर्म कृत्य करने चाहिए।
याचकों को दिया गया दान मात्र कीर्ति कराने वाला मानकर निष्फल नहीं मानना चाहिए। क्योंकि याचक भी देव, गुरु व संघ के गुणगान करते हैं इसलिए यह दान भी महाफलदायी है।
जिनेश्वर प्रभु के आगमन की सूचना देने वाले उद्यानपाल आदि को भी चक्रवर्ती साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्रा का दान देते थे। प्रागम में भी कहा है
__"चक्रवर्ती का वत्तिदान (नियक्त पुरुष को आजीविका हेतु दान) साढे बारह लाख स्वर्णमुद्रिका का होता है परन्तु प्रीतिदान (नियुक्त पुरुष के अलावा समाचार देने वाले को दिया गया दान) साढ़े बारह करोड़ स्वर्णमुद्रिका प्रमाण समझना चाहिए ।
इस प्रकार यात्रा करके लौटते समय भी भव्य प्रवेश महोत्सव द्वारा घर आना चाहिए और देव-आह्वान आदि उत्सव करना चाहिए तथा वर्ष आदि तक तीर्थोपवास आदि करना चाहिए।
+ विक्रम राजा का संघ, श्री सिद्धसेन दिवाकर द्वारा प्रतिबोधित श्री विक्रमादित्य के शत्र जय यात्रासंघ में 169 सोने के तथा 500 हाथीदाँत व चन्दन के जिनमन्दिर थे। संघ में 5000 आचार्य, चौदह मुकुटबद्ध राजा. 70 लाख परिवार, एक करोड़ दस लाख नौ हजार गाड़े, अठारह लाख घोड़े. 7600 हाथी तथा इतने ही ऊँट व बैल आदि थे।
कुमारपाल के संघ में स्वर्ण रत्नादिमय 1874 जिनमन्दिर थे।
थराद में पश्चिम मंडलीक के नाम से प्रख्यात प्राभू सेठ के संघ में 700 मन्दिर थे, उसने अपने संघ में बारह करोड़ सोना मोहर का खर्च किया था।
पेथड़शाह ने तीर्थ के दर्शन के समय ग्यारह लाख चांदी के टंक का व्यय किया था। उसके संघ में 52 मन्दिर व 7 लाख लोग थे। वस्तुपाल मंत्री द्वारा की गयी साढ़े बारह यात्राएँ प्रसिद्ध हैं।