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श्रावक जीवन-दर्शन/२४९
(4) अवज्ञा में तत्पर होने से जो बड़े दोषों की तो आलोचना करता है, परन्तु सूक्ष्म दोषों की आलोचना नहीं करता।
(5) सूक्ष्म का आलोचक बादर दोषों की आलोचना क्यों नहीं करेगा, यह दिखाने के लिए तृणग्रहण आदि रूप सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना करता है, बादर की नहीं।
(6) अव्यक्त स्वर से आलोचना करना ।
(7) गुरु को अच्छी तरह से पता न चले, अथवा अन्य भी सुनें, इस प्रकार आवाज कर आलोचना करता है।
(8) आलोचना करके बहुत लोगों को सुनाता है। (9) छेदग्रन्थ के जो ज्ञाता नहीं हैं, ऐसे गुरु से पालोचना करता है।
(10) डाँटने के भय से अपने समान अपराध करने वाले गुरु के पास आलोचना करना; आलोचक को इन दस दोषों का त्याग करना चाहिए।
* सम्यग् आलोचना से लाभ के (1) जिस प्रकार भार को वहन करने वाला, भार को हटाने पर हल्केपन का अनुभव करता है, उसी प्रकार शल्य का उद्धार होने पर आलोचक भी हल्केपन का अनुभव करता है ।
(2) आनन्द उत्पन्न होता है ।
(3) स्वयं के तथा दूसरों के दोष दूर होते हैं। आलोचना लेने से स्वयं के दोषों की निवृत्ति प्रतीत ही है, उसे देखकर अन्य व्यक्ति भी आलोचना लेने के लिए तैयार होते हैं, अतः दूसरों के भी दोषों की निवृत्ति होती है।।
(4) अच्छी तरह से आलोचना करने से मायारहित सरलता प्राप्त होती है । (5) अतिचार-दोषों की निवृत्ति होने से शुद्धि होती है।
(6) दोष का सेवन करना वह दुष्कर नहीं है क्योंकि यह अनादि काल का अभ्यास है परन्तु उसकी आलोचना दुष्कर कार्य है क्योंकि मोक्ष के अनुकूल प्रबल वीर्योल्लास विशेष से ही आलोचना हो सकती है । निशीथरिण में कहा है
"दोष का सेवन दुष्कर कार्य नहीं है परन्तु उसकी सम्यग् आलोचना करना दुष्कर कार्य है।"
सम्यग् आलोचना अभ्यन्तरतप के भेद रूप होने से मासक्षमण आदि से भी दुष्कर हैलक्ष्मणा साध्वी के दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट है।
* लक्ष्मणा साध्वी का दृष्टान्त * आज से अस्सी चौबीसी के पूर्व एक राजा के बहुत से पुत्रों के ऊपर, सैकड़ों मानताओं के बाद एक पुत्री पैदा हुई थी। दुर्भाग्य से स्वयंवर मण्डप में ही उसके पति की मृत्यु हो गई। परन्तु