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श्रावक जीवन-दर्शन/२६५
__ इधर गांधार नाम का श्रावक सभी मन्दिरों में चैत्यवन्दन करने के लिए निकला। बहत से उपवास करने से सन्तुष्ट हई देवी उसे वैताब्य पर्वत पर ले गयी और उसे वहाँ के मन्दिरों के दर्शन कराये। देवी ने उसे मनोवांछित प्रदान करने वाली एक सौ पाठ गुटिकाएँ प्रदान कीं, उनमें से उसने एक गुटिका मुह में रखी और वीतभय' नगर जाने का संकल्प किया। गुटिका के प्रभाव से वह वीतभय पहुंच गया। कुब्जा दासी ने उसे प्रतिमा का वन्दन कराया। गान्धार श्रावक वहाँ बीमार पड़ा। कुब्जा दासी ने उसकी सेवा की। अपना प्रायुष्य थोड़ा जानकर उस श्रावक ने सारी
दासी को दे दों और स्वयं ने दीक्षा ले ली। उस दासी ने एक गोली खा ली। उस गोली के प्रभाव से वह अत्यन्त रूपवती बन गयी और सुवर्णगुलिका के नाम से प्रख्यात हुई।
एक गुटिका से उसने चौदह मुकुटधारी राजारों से सेवित चण्डप्रद्योत को पति बनाने की इच्छा की, क्योंकि उदायन पिता तुल्य थे और शेष राजा तो उसके सेवक थे।
देवता के कथन से चण्डप्रद्योत ने उसे बुलाने के लिए दूत भेजा, तब सुवर्णगुलिका ने राजा को बुलाया। राजा भी अनिलवेग हाथी पर बैठकर वहाँ आया। सुवर्णगुलिका ने कहा- “मैं इस प्रतिमा के बिना नहीं आऊंगी, अतः इसके समान दूसरी प्रतिमा कराकर यहाँ स्थापित करें, जिससे इस प्रतिमा को साथ ले जाया जा सके।"
चण्डप्रद्योत प्रवन्ती में गया और वहाँ दूसरी प्रतिमा कराकर केवली कपिल ब्रह्मर्षि के द्वारा उसकी प्रतिष्ठा कराकर हाथी पर आरूढ़ होकर वीतभयनगर में आया और पूर्व प्रतिमा के स्थान पर उस प्रतिमा को रखकर मुख्य प्रतिमा व दासी को लेकर रात्रि में गुप्त रूप से चला गया ।
विषय में आसक्त उन दोनों ने पूजा के लिए वह प्रतिमा विदिशा नगरी के भायल स्वामी वणिक् को दे दी। एक बार कंबल-शंबल नागकुमार उस प्रतिमा की पूजा करने के लिए आये । भायल श्रावक पाताल की प्रतिमा की वन्दना करने के लिए उत्सुक होने से नागकुमार देव भायल को सरोवर के मार्ग से पाताल में ले गये। जब वे दोनों देव भायल को ले आये तब उसने जीवित स्वामी की आधी प्रांगी ही की थी। आधी प्रांगी बाकी थी। वहाँ जिनभक्ति से तुष्ट हुए धरणेन्द्र को भायल ने कहा-"मेरे नाम की प्रसिद्धि हो ऐसा करो" उसने कहा, "वैसा ही होगा। चण्डप्रद्योत राजा विदिशानगर तुम्हारे नाम से देवकीय नगर करेगा। परन्तु तुम आधी पूजा करके आये हुए होने के कारण भविष्य में वह प्रतिमा गुप्त रीति से मिथ्यादृष्टियों द्वारा पूजी जायेगी। यह प्रतिमा आदित्य भायल स्वामी की है, ऐसा कहकर उसे बाहर स्थापित करेंगे। तुम खेद न करो। दुषमकाल के प्रभाव से ऐसा ही होगा। इस बात को सुनकर भायल वापस चला आया।
प्रातःकाल में उस प्रतिमा की म्लान माला को देखकर, दासी को वहाँ नहीं देखकर एवं हाथी के मद के नाश को देखकर रात्रि में चण्डप्रद्योत के आगमन का निर्णय कर, सोलह देश और तीन सौ तिरसठ नगरों का अधिपति उदायन राजा, महासेन आदि दस मुकुटबद्ध राजाओं के साथ युद्ध के लिए चल पड़ा।
ग्रीष्मऋतु के कारण मार्ग में जल सूख गया। उस समय प्रभावतीदेव का स्मरण करने पर उस देव ने तीन तालाबों को जल से भर दिया।