Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 280
________________ 5 जीवित प्रतिमा का वृत्तान्त 5 चम्पानगरी में स्त्रीलोलुपी कुमारनन्दी नाम का सोनी रहता था। सोना मोहर देकर रूपवती कन्याओं के साथ पाणिग्रहण करता था । स्त्रियों के साथ एकस्तम्भ के महल में वह ईर्ष्यालु प्रानन्द करता था । श्रावक जीवन-दर्शन / २६३ वह पाँच सौ पाँच सौ इस प्रकार परिणीत पाँच सौ एक बार अपने पति विद्य ुन्माली का च्यवन हो जाने के कारण पंचशैल पर्वत पर रहने वाली हासा व प्रहासा नाम की व्यन्तारियों ने अपना रूप दिखलाकर कुमारनन्दी को मोहित किया । कुमारनन्दी ने जब उनसे काम की प्रार्थना की, तब उन देवियों ने कहा, "पंचशैल पर्वत पर आओ ।" इस प्रकार कहकर वे चली गयीं । पंचशैल पर ले जायेगा, उसे तैयार हो गया । अपने पुत्रों बहुत दूर जाने पर बोला में राजा को स्वर्ण देकर उसने एक पटह बजवाया कि "जो मुझे मैं करोड़ सोना मोहर दूंगा ।" यह घोषणा सुनकर एक वृद्ध नाविक को धन देकर उसने कुमारनन्दी को अपनी नाव में चढ़ाया और समुद्र "समुद्र तट पर यह बड़ का वृक्ष है, इसके नीचे से नाव जाने पर तुम इस बड़ की शाखा में लग जाना | पंचशैलपर्वत से तीन पैर वाले भारंड पक्षी यहाँ आकर सोते हैं । से अपने आपको दृढ़ता से बाँध देना । प्रातःकाल में वे उड़कर पंचशैल साथ तुम भी वहाँ पहुँच जाओगे और यह नाव महावर्त में गिर जायेगी । " उसके बीच के पैर में वस्त्र पर चले जायेंगे । उनके उस सोनी ने वैसा ही किया और वह पंचशैलपर्वत पर पहुँच गया । उन देवियों ने कहा " इस देह (दारिक देह) से तुम हमको नहीं भोग सकोगे, अतः अग्नि प्रवेश करो।" उन देवियों ने उसे हथेली में उठाकर चम्पा के उद्यान में रख दिया। मित्र नागिल श्रावक ने उसको रोका, फिर भी निदानपूर्वक अग्निस्नान कर पंचशैल पर्वत का अधिपति व्यन्तरदेव बना । विरक्त होकर नागिल ने भी दीक्षा स्वीकार की और अन्त में समाधिपूर्वक मरकर वह बारहवें देवलोक में देव बना । 1 एक बार नन्दीश्वर द्वीप की ओर जाने वाले देवताओं की आज्ञा से हासा प्रहासा ने कुमारनन्दी देव को पटह ग्रहण करने के लिए कहा । वह अहंकार से हुंकार करने लगा । इतने में वह पटह उसके गले में लग गया, वह किसी भी प्रकार से दूर नहीं होता था । अपने अवधिज्ञान से जानकर वह नागिल देव वहाँ उपस्थित हुआ । सूर्य के तेज से उल्लू भागता है, उस प्रकार वह कुमारनन्दी देव उस नागिल देव के तेज को सहन न कर सकने के कारण भागने लगा अतः उस देव ने अपने तेज का संहरण कर उसे कहा - " तुम मुझे पहिचानते हो ?” उसने कहा--"इन्द्रादि को कौन नहीं पहिचानता है ?" कुमारनन्दी देव के इस प्रकार कहने पर नागिल देव ने श्रावक का रूप कर पूर्वभव कहकर उसे प्रतिबोध दिया । प्रतिबोध पाने पर कुमारनन्दी देव ने कहा – “अब मैं क्या करू ?" नागिल देव ने कहा, "गृहस्थ अवस्था में कायोत्सर्ग में रहे भावयति महावीर प्रभु की प्रतिमा कराओ, जिससे तुम्हें परभव में बोधि की प्राप्ति होगी ।" यह बात सुनकर उस देव ने प्रतिमा में रहे श्रीवीर प्रभु को देखकर महाहिमवन्त पर्वत पर रहे गोशीर्ष चन्दन की प्रतिमा तैयार करा दी और उसकी प्रतिष्ठा कराकर सर्वांग आभूषणों से अलंकृत कर पुष्पादि से पूजा कर जातिवन्त चन्दन की पेटी में रख दी । समुद्र में एक नाव के

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