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श्रावक जीवन-दर्शन/२५५
बीजोरी, केल, दाडिम, जंबीर, दो प्रकार के हरिद्र, इमली, बबूल, बेर आदि वृक्षों की लकड़ियों की भी उपयुक्त वस्तुएँ नहीं बनानी चाहिए। उपर्युक्त वृक्षों का मूल पड़ोसी के घर में घुस जाय अथवा उस वृक्ष की छाया जिस घर पर गिरे, उस घर के कुल का नाश होता है ।
पूर्व दिशा में ऊँचा घर हो तो धन का नाश होता है, दक्षिण भाग में ऊँचा हो तो धन की समृद्धि होती है, पश्चिम भाग में ऊँचा हो तो वृद्धि होती है ।
वलयाकार, बहुत से कोण वाला, भीड़वाला, एक, दो या तीन कोने वाला, दायीं और बायीं तरफ लम्बा हो, ऐसा घर नहीं बनाना चाहिए।
जिस घर के द्वार (कपाट) स्वतः बन्द होकर खुल जायें उसे अशुभ माना गया है। घर के मूल द्वार में चित्रमय कलश आदि की शोभा सुन्दर कहलाती है ।
जिन चित्रों में योगिनी का नाट्यारम्भ हो, भारत, रामायण, नृपयुद्ध, ऋषि अथवा देव के . चरित्र हों ऐसे चित्र घर में अच्छे नहीं है ।
फल वाले वृक्ष, फूल की लताएँ, सरस्वती, नवनिधानयुक्त लक्ष्मी, कलश, वर्धापन तथा चौदह स्वप्नों की श्रेणी शुभ चित्र हैं।
जिस घर में खजूर, दाडिम, केल, बेर, बिजोरी के वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उस घर का समूल नाश होता है।
घर में दूध झरने वाले वृक्ष हों तो लक्ष्मी का नाश होता है, काँटे वाले वृक्ष हों तो शत्र से भय होता है, फल वाले हों तो सन्तति का नाश होता है अतः उनके काष्ठ का भी त्याग करना चाहिए।
किसी का कहना है-घर के पूर्व भाग में बड़ का वृक्ष, दक्षिण भाग में उंबर का वृक्ष, पश्चिम भाग में पीपल का वृक्ष तथा उत्तर भाग में पलाश का वृक्ष श्रेष्ठ है।
घर के पूर्व भाग में लक्ष्मी का गृह (भंडार), अग्निकोण में रसोड़ा, दक्षिण भाग में शयनगृह, नैऋत्य में शस्त्रागार व पश्चिम में भोजनकक्ष, वायव्यकोण में धान्यसंग्रह, उत्तर दिशा में जलस्थान व ईशान कोण में देवतागृह रखना चाहिए।
घर के दक्षिण में अग्नि, जल, गाय, वायु तथा दीपक के स्थान रखने चाहिए और बायें या पश्चिम भाग में भोजन, धान्य, द्रव्य, सीढ़ी, देवस्थान रखना चाहिए ।
घर के द्वार की अपेक्षा पूर्व आदि दिशाएँ समझनी चाहिए। जिस दिशा में द्वार हो उसे पूर्व दिशा और उसके अनुसार अन्य दिशाएँ समझनी चाहिए, न कि सूर्योदय की अपेक्षा से पूर्व दिशा आदि ; जैसे छींक में गिनी जाती है।
घर के निर्माता सूत्रधार, नौकर आदि के साथ जो मूल्य आदि तय किये हों, उससे अधिक उचित देकर उन्हें खुश करना चाहिए, परन्तु उन्हें कभी ठगना नहीं चाहिए।