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श्रावक जीवन-दर्शन/२४५
इसी प्रकार शुक्ल पंचमी आदि विविध तपों में भी, उतने-उतने उपवास की संख्यानुसार रुपया, कटोरी, नारियल, मोदक आदि अनेक प्रकार की वस्तुएँ रखकर श्रुत व सम्प्रदाय आदि के अनुसार उद्यापन करना चाहिए ।
(१०) शासनप्रभावना :
शासन-प्रभावना के लिए अपने गुरुदेव का भव्य प्रवेश उत्सव व प्रभावना आदि कार्य वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य करने चाहिए।
गुरु के प्रवेश-उत्सव में विस्तृत व भव्य आडम्बर के साथ चतुर्विध संघ सह गुरुदेव के सम्मुख जाना चाहिए और गुरुदेव व संघ का यथाशक्ति सत्कार आदि करना चाहिए। कहा है-“साधु के सम्मुख गमन, वन्दन, नमस्कार व सुखशाता पूछने से चिरसंचित कर्म भी क्षण भर में नष्ट हो जाता है।"
__ पेथड़ शाह ने तपागच्छीय श्री धर्मघोष सूरिजी के प्रवेश-उत्सव में बहोत्तर हजार टंक का व्यय किया था। संविग्न साधु का प्रवेश-उत्सव अनुचित है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि आगम में भी उनके सम्मुख जाकर प्रवेशोत्सव करने का प्रतिपादन है। व्यवहार भाष्य में प्रतिमा अधिकार में कहा है- "प्रतिमा पूर्ण होने पर प्रतिमावाहक साधु जहाँ साधुओं का विचरण होता हो, वहाँ अपने आपको प्रगट करे, उसके बाद संयत साधु अथवा संज्ञी श्रावक को संदेश भेजे। उसके बाद राजा, ग्रामाधिपति, वह न हो तो श्रावक वर्ग तथा साधु-साध्वी वर्ग प्रतिमावाहक का सत्कार करे।"
इसका भाव इस प्रकार है-प्रतिमा समाप्त होने पर जिस निकट के गांव में बहुत से भिक्षाचर तथा साधु पाते हों, वहाँ आकर अपने आपको प्रगट करे। उसके बाद जिस साधु या श्रावक को देखे, उसे सन्देश कहे-"मैंने प्रतिमा समाप्त की है, अतः आया हूँ।"
वहाँ आचार्य भगवन्त राजा को निवेदन करते हैं कि "अमुक महातपस्वी ने महान्तप समाप्त किया है, अतः इनका सत्कार के साथ गच्छ में प्रवेश होना चाहिए।"
___ उसके बाद वह राजा, राजा न हो तो अधिकृत ग्रामनायक, उसके अभाव में समृद्ध श्रावकवर्ग और उसके भी प्रभाव में साधु-साध्वी आदि संघ उस प्रतिमावाहक साधु का यथाशक्ति सत्कार करते हैं। सत्कार में ऊपर चंदरवे को धारण करें, मंगल वाद्य यंत्र बजायें, सुगंधित वास-गुलाब जल, इत्तर फुलेल वगैरह छांटें।
सत्कार के ये लाभ हैं- ... (1) प्रवेश के समय सत्कार करने से शासन की शोभा होती है।
(2) दूसरे साधुओं को भी प्रेरणा मिलती है कि "हम भी ऐसा करें, जिससे महती शासनप्रभावना हो।'
(3) श्रावक-श्राविका तथा अन्य को भी शासन पर बहुमान पैदा होता है-"अहो ! वीतराग का यह शासन महाप्रतापी है, जहाँ इस प्रकार के महान् तपस्वी हैं।"