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श्रावक जीवन-दर्शन/२४३
पेश
(४) स्नात्र महोत्सव :
जिनमन्दिर में प्रतिदिन अथवा पर्वदिनों में बड़े आडम्बर के साथ स्नात्र महोत्सव करना चाहिए। इतनी भी शक्ति न हो तो वर्ष में एक बार यह महोत्सव करना चाहिए। स्नात्र महोत्सव में मेरु को रचना करनी चाहिए। अष्टमंगल, नैवेद्य आदि धरना चाहिए। बावनाचंदन, केसर, पुष्प व भोग आदि समग्र सामग्री इकट्ठी करनी चाहिए। समुदाय को इकट्ठा करना चाहिए फिर संगीत आदि बाह्य आडम्बर के साथ एवं रेशमी महाध्वजा के प्रदान व प्रभावना पूर्वक स्नात्र महोत्सव करना चाहिए।
स्नात्र महोत्सव में अपने वैभव, कुल व प्रतिष्ठा के अनुसार सर्वशक्ति से द्रव्य-व्यय के आडम्बरपूर्वक जिनशासन की प्रभावना के लिए यत्न करना चाहिए।
पेथड़शाह ने गिरनार तीर्थ पर स्नात्र महोत्सव में छप्पन लाख घड़ी प्रमाण सुवर्ण प्रदान कर इन्द्रमाला पहनी थी। उसने शत्रजय से गिरनार तक स्वर्णमय (सोनेरी जरी वाली) ध्वजा बाँधी थी। उसके पुत्र झांझण सेठ ने रेशमी वस्त्रमय ध्वजा प्रदान की थी।
(५) देवद्रव्य वृद्धि :
देवद्रव्य की वृद्धि के लिए प्रतिवर्ष मालोद्घाटन करना चाहिए। उसमें इन्द्रमाला अथवा अन्यमाला प्रतिवर्ष ग्रहण करनी चाहिए।
कुमारपाल महाराजा के संघ की माला-परिधान के समय वाग्भट्ट प्रादि मंत्री चार-पाठ लाख प्रादि बोलने लगे। उस समय सौराष्ट्र देश के महुअा निवासी प्राग्वाट हंसराज धारु के पुत्र जगड़ ने, जो मलिन वस्त्र में थे, सवा करोड़ बोला। विस्मित हुए राजा के पूछने पर वह बोला, "मेरे पिता ने नौका में बैठकर देश-विदेश में भ्रमण कर जो अर्थोपार्जन किया था, उस धन से उन्होंने सवा करोड़ की कीमत के पाँच रत्न खरीदे थे।......."अन्त में उन्होंने कहा था-श्री शत्रुजय, गिरनार और देवपत्तन तीर्थ के प्रभु को एक-एक रत्न समर्पित करना और दो तुम रखना। उनमें से तीन रत्नों को स्वर्ण के कण्ठाभरण में स्थापित कर ऋषभदेव स्वामी, नेमिनाथ और चन्द्रप्रभ स्वामी को अर्पित किये। गिरनार-पर्वत पर श्वेताम्बर व दिगम्बर संघ के एक साथ पहुंचने पर तीर्थ का विवाद पैदा हुअा। उस समय वृद्धों ने कहा-"जो इन्द्रमाला ग्रहण करेगा उसका यह तीर्थ होगा।"
पेथड़ शाह ने छप्पन घड़ी स्वर्ण बोलकर वह माला ग्रहण की। चार घड़ी सोना याचकों को प्रदान कर तीर्थ को अपना बनाया।
इसी प्रकार पहेरामणी, नवीन धोती, विचित्र चंदरवे, अंगलूछन, दीपतैल, जात्यचंदन, केसर, भोग आदि चैत्योपयोगी वस्तु भी प्रतिवर्ष प्रदान करनी चाहिए।
६. महापूजा व ७. रात्रिजागरण :
विशिष्ट प्रांगी की रचना, सोने रूपे के बरक की विविध रचना, सर्वांगाभरण। पुष्पगृह, कदलोगृह, पुतली, जलयंत्र आदि की रचना, अनेक प्रकार के गीत, नृत्य आदि उत्सवों द्वारा महापूजा और रात्रिजागरण करना चाहिए।