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श्रावक जीवन-दर्शन / २१७ " हे काम ! मैं तेरे स्वरूप को जानता हूँ, तू संकल्प से ही उत्पन्न होता है, मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा, जिससे तू मेरा नहीं बन सकेगा ।"
नवविवाहित आठ श्रेष्ठिकन्याओं को प्रतिबोध देने वाले और निन्यानवे करोड़ सोना मोहर का त्याग करने वाले जम्बूस्वामी, साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का व्यय कर कोशा वेश्या में आसक्तिपूर्वक विलास करने वाले और अन्त में दीक्षा लेकर कोशा के महल में रहकर काम को जीतने वाले स्थूलभद्र महामुनि तथा अभयारानी के द्वारा विविध अनुकूल व प्रतिकूल उपसर्ग करने पर भी लेश भी क्षुब्ध नहीं होने वाले सुदर्शन सेठ आदि के दृष्टान्त प्रसिद्ध होने के कारण उन्हें विस्तार से नहीं लिखते हैं ।
कषायादि दोषों के विरुद्ध भावना करने से कषायों पर विजय प्राप्त की जा सकती है । जैसे -- क्षमा की भावना से क्रोध को मृदुता की भावना से मान को, सरलता की भावना से माया को, सन्तोष की भावना से लोभ को, वैराग्य की भावना से राग को, मंत्री की भावना से द्वेष को विवेक की भावना से मोह को, स्त्रीदेह की अशुचि भावना से काम को, दूसरे की सम्पदा के उत्कर्ष के विषय में भी चित्त को नहीं बिगाड़ने से मत्सर को संयम से विषय को, तीन गुप्ति से अशुभ मन, वचन और काया के योगों को, अप्रमाद से प्रमाद को तथा विरति द्वारा प्रविरति को सुखपूर्वक जीता जा सकता है ।
तक्षक सर्प के मस्तक पर रहे मरिण को ग्रहण करने की तरह तथा अमृतपान के उपदेश की तरह इसे अशक्य नहीं समझना चाहिए। उन उन दोषों के त्याग द्वारा गुणमय बने हुए मुनियों के दर्शन होते हैं । दृढ़प्रहारी, चिलाती पुत्र और रोहिणेय आदि के दृष्टान्त प्रसिद्ध ही हैं ।
कहा भी है - "हे लोको ! जो महान् पुरुष पूज्यता को प्राप्त हुए हैं, वे पहले साधारण पुरुष ही थे । अतः दोष के त्याग में अतुल उत्साह रखो, सज्जन पुरुषों की उत्पत्ति का कोई खेत नहीं होता है तथा पूज्यपना स्वभाव से भी नहीं आता है, जो व्यक्ति जिन-जिन गुणों को धारण करता है, वह वह व्यक्ति साधु बनता है, अतः उन गुणों को भजो ।"
" हे प्रिय मित्र विवेक ! बहुत पुण्य से तुम प्राप्त हुए हो। हमारे पास से तुम कितने क दिन तक मत जाना । तुम्हारे संग से मैं सत्वर ही अपने जन्म-मरण का उच्छेद करूंगा । पता नहीं फिर तुम्हारे साथ मेरा संग होगा या नहीं ?'
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गुण यत्नसाध्य हैं और यत्न अपने अधीन है। 'यह गुणवानों में अग्रणी है।' इस बात को कौन जीवित पुरुष सहन करेगा ?
" गुण गौरव के लिए हैं परन्तु जाति का आडम्बर गौरव के लिए नहीं होता है क्योंकि वन के पुष्प को ग्रहण किया जाता है और स्वयं के ही मल का त्याग किया जाता है ।" "गुणों से ही महिमा होती है, बड़े शरीर अथवा वय से नहीं । जैसे केतकी के छोटे पत्ते भी सुगन्ध के कारण महिमा प्राप्त करते हैं।" कषाय आदि की उत्पत्ति में निमित्तभूत उन उन द्रव्य क्षेत्र - काल-भाव आदि का त्याग करने पर भी उन उन दोषों का परित्याग होता है ।