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श्रावक जीवन-दर्शन / २३७
अन्तराय दोष से किसी का विभव क्षय हुआ हो तो उसे पुनः पूर्वावस्था में लाना चाहिए । जो अपने साधर्मिकों को समृद्ध नहीं करता है, उसकी समृद्धि से भी क्या फायदा ? कहा भी है" जिसने गरीबों का उद्धार नहीं किया, साधर्मिकों का वात्सल्य नहीं किया और हृदय में वीतराग को धारण नहीं किया, सचमुच, वह अपने जन्म को हार गया है ।"
साधर्मिक यदि धर्म में शिथिल हों तो उन्हें उन-उन उपायों से धर्मं में स्थिर करना चाहिए । प्रमाद करने वालों को स्मरण, निवारण, प्रेरणा और विशेष प्रेरणा भी करनी चाहिए। कहा है"कर्त्तव्य का विस्मरण होने पर याद कराना वह सारणा कहलाती है । अनाचार में प्रवृत्त हो तो उसे रोकना वह वारणा कहलाती है । वारणा करने पर भी भूल करे तो उसे प्रेरणा करनी चाहिए । वह चोयरणा कहलाती है तथा बार-बार भूल करे तो कठोर दण्ड करे वह पडिचोयणा कहलाती है ।'
साधर्मिक को वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा में यथायोग्य जोड़ना चाहिए । विशिष्ट धर्मानुष्ठान करने के लिए साधारण पौषधशाला आदि बनवानी चाहिए | श्रावक की तरह श्राविका की भी भक्ति अन्यूनाधिक रूप से करनी चाहिए। ज्ञान, दर्शन और चारित्र वाली, शील व सन्तोष वाली सधवा या विधवा स्त्री जिनशासन की रागी होने से सार्धामिक के रूप में मान्य है ।
प्रश्न- स्त्री तो लोक और लोकोत्तर में दोष की भाजन है। कहा है--"स्त्री तो भूमिरहित विषकंदली है । श्राकाश के बिना उत्पन्न वज्र है, जिसकी औषध नहीं है ऐसी बीमारी है, कारण बिना की मृत्यु है, निमित्त बिना का उत्पात है, फरण बिना की सर्पिणी है, गुफा बिना की व्याघ्री है गुरु व बन्धु के स्नेह को तोड़ने वाली तथा असत्य बोलने वाली तथा मायावी है।" और भी कहा है-"झूठ, साहस, माया, मूर्खता, अतिलोभ, अपवित्रता व निर्दयता ये स्त्री के स्वाभाविक दोष हैं ।" "हे गौतम ! जब अनन्त पापराशि इकट्ठी होती है, तब आत्मा स्त्री के रूप जन्म लेती है ।" सभी शास्त्रों में भी प्रायः स्थान-स्थान पर उसकी निन्दा देखने में प्राती है, अत: उन्हें दूर से ही छोड़ देना चाहिए; तो फिर उसके दान, सम्मान व वात्सल्य का विधान क्या योग्य है ?
उत्तर - यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि स्त्रियों में ही बहुत से दोष पाये जाते हों । स्त्री की तरह पुरुष में भी बहुत से दोष पाये जाते हैं । कई पुरुष भी क्रूर, दोषी, नास्तिक, कृतघ्न, स्वामीद्रोही, विश्वासघाती, असत्यवादी, परस्त्री-रक्त, निर्दय तथा देव गुरु को ठगने वाले होते हैं । इतने मात्र से महापुरुषों की अवज्ञा करना उचित नहीं है । इसी प्रकार योग्य स्त्री की भी उपेक्षा करना उचित नहीं है । यद्यपि कुछ स्त्रियों में बहुत से दोष पाये जाते हैं फिर भी उनमें बहुत-सी गुणसम्पन्न भी होती हैं । तीर्थंकर की माता स्त्री होने पर भी अपनी गुरणगरिमा के कारण इन्द्रों के द्वारा पूजी जाती है और मुनियों के द्वारा भी उसकी स्तुति की जाती है। लौकिक शास्त्र में भी कहते हैं-" जगत् के गुरु बनने वाले गर्भ को भी स्त्री ही वहन करती है, इसी कारण विद्वान् पुरुष उसकी निरतिशय महिमा कहते हैं ।
कई स्त्रियाँ अपने शील के प्रभाव से अग्नि को जल के जैसा, जल को स्थल के जैसा, हाथी को सियार के जैसा, सर्प को डोरी के जैसा तथा विष को अमृत के जैसा करती हैं । चतुर्वर्णी संघ में चौथा श्राविका का ही है । शास्त्र में जो उसकी निन्दा की गयी है, उसके पीछे मुख्य उद्देश्य