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श्राद्धविधि/२३८
उसमें आसक्त पुरुषों को आसक्तिमुक्त कराने का ही है। सुलसा आदि श्राविकाओं की तीर्थंकरों ने भी प्रशंसा की है। इन्द्रों ने भी स्वर्ग में उनकी धर्म में दृढ़ता की प्रशंसा की है, प्रबल मिथ्यादृष्टि भी जिनका सम्यक्त्व डिगा नहीं सके। कई चरमशरीरी होती हैं। कई स्त्रियाँ दो-तीन भवों में मोक्ष में जाने वाली हैं, ऐसा भी शास्त्र में सुनने में आता है। अत: स्त्रियों का भी माता, बहिन व पुत्री की तरह वात्सल्य करना युक्तिसंगत ही है ।
राजाओं को अतिथि-संविभाग व्रत की आराधना सार्मिक वात्सल्य से ही सम्भव है, क्योंकि राजपिंड तो मुनियों के लिए प्रकल्प्य है।
ॐ दण्डवीर्य का दृष्टान्त * भरत की परम्परा में हुए त्रिखण्ड के अधिपति दण्डवीर्य राजा सार्मिक को भोजन कराकर ही भोजन करते थे। एक बार इन्द्र ने उनकी परीक्षा करने का निर्णय किया । उसने ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप तीन रत्नों की सूचक स्वर्ण की जनोई तथा बारह व्रत के सूचक बारह तिलक करने वाले तथा भरत विरचित चार वेदों का मुखपाठ करने वाले करोड़ों तीर्थयात्रिक श्रावकों की रचना की। दण्डवीर्य उनको निमंत्रण देकर भक्तिपूर्वक भोजन कराने लगे। भोजन पूर्ण होने के पहले ही सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार पाठ उपवास हो जाने पर भी उनकी सार्मिक भक्ति तो वर्धमान तरुण पुरुष की शक्ति की भांति बढ़ने ही लगी । यह देख इन्द्र प्रसन्न हो गये और उन्होंने दिव्य धनुष, बाण, रथ, हार व कुण्डल-युगल के दानपूर्वक शत्र जय की यात्रा एवं उस तीर्थ के उद्धार के लिए आदेश दिया। दण्डवीर्य राजा ने भी वैसा ही किया।
卐 सम्भवनाथ प्रभु का दृष्टान्त ॥ सम्भवनाथ प्रभु अपने पूर्व के तीसरे भव में धातकी खण्ड के ऐरावत क्षेत्र में क्षेमापुरी नगरी में विमलवाहन नाम के राजा थे। उस समय उन्होंने समस्त सार्मिकों को भोजन खिलाकर जिननामकर्म का बन्ध किया। उसके बाद दीक्षा स्वीकार कर आनत देवलोक में देव बने और वहाँ से च्यवकर सम्भवनाथ बने ।
फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन मां की कुक्षि में उनके जन्म के साथ ही उसी दिन महादुभिक्ष दूर हो गया और उसी दिन चारों ओर से समस्त धान्यों का सम्भव (उत्पत्ति) हो जाने से उनका नाम सम्भव रखा गया। बृहद्भाष्य में भी कहा है-"सं का अर्थ सुख होता है, उनको देखने से ही सर्व को सुख होता है, अतः उन्हें संभव कहते हैं। इस व्याख्या से सभी तीर्थकर सम्भव कहलाते हैं।" . सम्भवनाथ प्रभु के 'सम्भव' नामकरण का दूसरा भी कारण है। एक बार काल के दोष से श्रावस्ती नगरी में अकाल पड़ा। सभी लोग दुःखी हो गये। उसी समय सेनादेवी की कुक्षि में सम्भवनाथ प्रभु का अवतरण हुना। उस समय इन्द्र ने पाकर माता की पूजा की और भुवन में सूर्य समान पुत्र के लाभ की वधामणी दी। उसी समय अचानक धान्य से भरपूर अनेक सार्थवाह वहाँ आये, उससे वहाँ सुभिक्ष हुना, जिस कारण समस्त प्रकार के धान्य सम्भव हुए, इसी कारण माता-पिता ने उनका नाम सम्भव रखा।
देवगिरि में सेठ जगसिंह ने तीन सौ साठ सार्मिकों को अपने समान सुखी किया था। उनके