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श्राविषि/२१६
एकान्त शय्या में ही शयन करें परन्तु स्त्री आदि से युक्त शय्या में शयन न करें। क्योंकि विषयसेवन का अभ्यास अनादिकाल से है तथा वेद का उदय उत्कट होता है इसलिए प्राणी पुनः कामवासना से पीड़ित हो जाता है। कहा भी है
"जिस प्रकार अग्नि के सान्निध्य से लाख पिघलती है, उसी प्रकार स्त्री के सान्निध्य से धीर व कृशकाय मनुष्य भी पिघलता है (अर्थात् कामाधीन बनता है)।"
प्राप्तवाणी है कि पुरुष जिस वासना से युक्त होकर सोता है, वह जागृति तक उसी वासनायुक्त बना रहता है। अतः मोह को उपशान्त कर धर्म-वैराग्य आदि भावना से भावित होकर नींद लेनी चाहिए-इससे कुस्वप्न और दुःस्वप्न नहीं पाते हैं और धर्ममय सुन्दर स्वप्न ही आते हैं।
सोया हुया व्यक्ति पराधीन होता है। जीवन आपत्तियों से भरपूर है, आयुष्य सोपक्रम है, कर्म की गति विचित्र है अतः कदाचित् आयुष्य समाप्त हो जाय तो भी शुभ भाव से निद्राधीन बने हों तो सद्गतिगामी बन सकते हैं। कहा भी है-अन्त में जो मति होती है, वही गति होती है।
इस संदर्भ में कपटी साधु द्वारा पौषध में मारे गये उदायी राजा का दृष्टान्त प्रसिद्ध है।
+ कामविजय-चिन्तन के अब गाथा के उत्तरार्द्ध की व्याख्या करते हैं। रात्रि के मध्य में निद्रा दूर होने पर, अनादि काल के भवाभ्यास के रस से उल्लसित दुर्जय कामराग को जीतने के लिए स्त्रीशरीर की अशुचिताअपवित्रता का चिन्तन करना चाहिए।
जम्बुस्वामी, स्थूलभद्र आदि महर्षि तथा सुदर्शन सेठ आदि सुश्रावकों के शीलपालन में एकाग्रता, कषाय आदि दोषों के विजय के उपाय, संसार की भयंकरता तथा धर्म के मनोरथों के बारे में चिन्तन करना चाहिए ।
स्त्रीशरीर की अपवित्रता और निन्दनीयता तो सर्वजगप्रसिद्ध ही है।
पूज्यश्री मुनिसुन्दर सूरिजी म. ने अध्यात्म-कल्पद्रुम में कहा है- "हे पात्मन् ! चमड़ी, हड्डी, मज्जा, आंतें, चर्बी, रक्त, मांस, विष्टा आदि के अपवित्र और अस्थिर पुद्गल के स्कन्ध स्त्रीशरीर के रूप में परिणत हुए हैं, उसमें तुम्हें कौनसी सुन्दरता लगती है ?"
"हे मूढ़ ! दूर रही थोड़ी भी विष्टा को देखकर तू अपनी नाक सिकोड़ता है, तो फिर उसी अशुचि से भरी हुई स्त्री के शरीर की अभिलाषा क्यों करता है ?"
मानों विष्टा की थैली न हो, जिसके बहुत से छिद्रों में से निकलते हुए मल से मलिन, मलिनता से उत्पन्न हुए कीड़ों के समुदाय से भरी हुई, चपलता और मायामृषावाद से सर्व प्राणियों को ठगने वाली स्त्री के ऊपर मोहित होकर के उसे भोगे तो अवश्य नरक में जाता है। संकल्प से उत्पन्न होने वाला कामविकार तीनों लोकों में विडम्बना करने वाला होने पर भी काम के संकल्पविकल्प का त्याग करने वाले के लिए उसको जीतना आसान है। कहा है