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श्रावक जीवन-दर्शन/२१५
शयन की प्रागमोक्त विधि सोने के पूर्व चैत्यवन्दन आदि द्वारा देव-गुरु को नमस्कार करना चाहिए और चार प्रकार के आहार का पच्चक्खाण करना चाहिए। गंठसी पच्चक्खाण से सर्ववत के संक्षेप रूप देशावकासिक व्रत स्वीकार करना चाहिए। दिनकृत्य में कहा है
"प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, दिनलाभ, अनर्थदण्ड, अंगीकृत को छोड़कर समस्त उपभोग-परिभोग तथा गह-मध्य के सिवाय समस्त दिशागमन को छोड़कर एवं मच्छर, जू आदि के सिवाय समस्त जीवों की वचन व काया से हिंसा का गंठसी पच्चक्खाण से त्याग करता है।"
"पहले प्राणातिपात का नियमन नहीं था, अब एकेन्द्रिय, मच्छर, जू आदि को छोड़ पारम्भजन्य सापराध और त्रसविषयक हिंसा का वचन और काया से गंठसी पच्चक्खाण पूर्वक (जब तक गाँठ नहीं खोलूगा तब तक) त्याग करता हूँ। (मन का नियंत्रण अशक्य होने से यहाँ पर वचन
और काया ही कहा है। इसी प्रकार मुषावाद, अदत्तादान व मैथन का भी त्याग करता है। प्रातः विद्यमान दिनलाभ का नियमन नहीं किया था अब उसकी भी मर्यादा करता हूँ। अनर्थदण्ड तथा शयन-आच्छादन को छोड़कर समस्त उपभोग-परिभोग का त्याग करता हूँ और गृहमध्य को छोड़ अन्य दिशाओं के गमन का त्याग करता हूँ।"
___ इस प्रकार देशावकासिक व्रत को स्वीकार करने से महान् लाभ होता है। इसके पालन से महर्षि की तरह निःसंगता का लाभ मिलता है। इस व्रत का वैद्य के जीव बन्दर ने प्राणान्त कष्ट में भी पालन किया था। फलस्वरूप उसे आगामी भव में महान् फल प्राप्त हुआ था। अतः विशेष फल के अभिलाषी को यह व्रत मुख्यतया पालन करना चाहिए।
मुख्यतया पालन करने में असमर्थ हो तो अनाभोग आदि चार आगारों में से चौथे आगार से अग्नि आदि का कारण आने पर व्रत छूट जाय तो व्रतभंग का दोष नहीं लगता है ।
(नोट-वैद्य के जीव वानर का दृष्टान्त ग्रन्थकार के प्राचार-प्रदीप ग्रन्थ से जान लें।)
है शरणागति-स्वीकार के अरिहन्त आदि चार की शरण को स्वीकार करना चाहिए। सर्व जीवों के साथ क्षमापना और अठारह पापस्थानकों का त्याग करना चाहिए । दुष्कृत की गर्हा और सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिए।
जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्स इमाइ रयणीए।
पाहारमुवहिदेहं - सव्वं तिविहेण वोसिरिअं॥
“यदि इस रात्रि में मेरी मृत्यु हो जाय तो मैं देह, आहार और उपधि इन सबका त्रिविध से त्याग करता हूँ।"
नवकार गिनकर उपयुक्त गाथा को तीन बार पढ़कर सागारी अनशन करना चाहिए तथा शयन करते समय पञ्च परमेष्ठी नमस्कार का स्मरण करना चाहिए।