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* चतुर्थ-प्रकाश * पर्वकृत्यों का वर्णन करने के बाद अब चातुर्मासिक कृत्यों का वर्णन करते हैं
जिसने परिग्रह-परिमाण का नियम लिया हो उसे प्रत्येक चातुर्मास के पूर्व उसका संक्षेप करना चाहिए। जिसने नियम नहीं लिया हो उसे भी प्रत्येक चातुर्मास के योग्य नियमों को स्वीकार करना चाहिए और अभिग्रह लेने चाहिए।
वर्षाकालीन चातुर्मास में सविशेष नियम लेने चाहिए। जिन नियमों को लेने से बहुत अधिक लाभ होता हो और नहीं लेने से बहुत विराधना होती हो और धर्म की अपभ्राजना होती हो, वे नियम विशेष करके ग्रहण करने चाहिए। जैसे-वर्षा ऋतु में गाड़े चलाना निषिद्ध है। बादल तथा वर्षा होने से ईलिका आदि पड़ने के कारण रायण (खिरनी) व पाम आदि क उचित है।
देश, नगर, ग्राम, जाति, कुल, वय तथा अवस्था आदि की अपेक्षा समुचित नियम अवश्य स्वीकार करने चाहिए। ये नियम दो प्रकार के हैं-(1) जिनका कठिनाई से पालन हो सके और (2) जिनका पालन करना सरल हो ।
धनवान, व्यापारी तथा अविरतिधर लोगों के लिए सचित्त रस तथा शाक का त्याग तथा सामायिक आदि का स्वीकार कठिन है तथा पूजा, दान ग्रादि का पालन सरल है; जबकि निर्धन व्यक्ति के लिए इससे विपरीत स्थिति होती है। यदि चित्त की एकाग्रता हो तो, जैसे चक्रवर्ती और शालिभद्र आदि ने दीक्षा ली, वैसे सब-कुछ सरल है।
कहा है-"तभी तक मेरुपर्वत की ऊँचाई है, समुद्र दुस्तर है और कार्य की गति विषम है, जब तक धीर पुरुष प्रवृत्त नहीं होते हैं।" कठिन नियमों के पालन में अशक्त व्यक्ति को भी सरल नियमों का स्वीकार अवश्य करना चाहिए।
मुख्यतया वर्षा ऋतु में सर्व दिशाओं में गमन का निषेध उचित है। कृष्ण महाराजा और कुमारपाल ने इन नियमों का पालन किया था। इतना भी नियम शक्य न हो तो जिस दिशा में जाने के बिना चल सकता है उस दिशा का नियम करना चाहिए। सर्व सचित्त का त्याग शक्य न हो तो जिनके बिना निर्वाह हो सकता हो, उनको अवश्य छोडना चाहिए।
जब जिसके पास जो वस्तु नहीं होती हो, जैसे—गरीब के घर हाथी आदि, मरुस्थल में नागरबेल, अपनी-अपनी ऋतु के बिना आम्रफल; इत्यादि वस्तुओं का तो अवश्य नियम करना चाहिए। इस प्रकार अविद्यमान वस्तु के त्याग से भी महान् लाभ होता है ।
* द्रमक का दृष्टान्त * राजगृही नगरी में एक द्रमक (भिखारी) ने दीक्षा ली थी। 'इसने तो बहुत छोड़ा' इस