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श्रावक जीवन-दर्शन/२३३
देखना, जतों का उपयोग करना, क्षेत्र काटना, ऊपर से धान काटना, दलना आदि जो कार्य हैं उनका यथासम्भव प्रतिदिन संक्षेप करना एवं पढने-गुणने में, जिनमन्दिर के दर्शन तथा कार्यों में, धर्मोपदेश सुनने में तथा वर्षभर में जो अष्टमी, चतुर्दशी, कल्याणक तिथि आदि आती है उनमें विशेष तप करने का उद्यम करना चाहिए।
धर्म के लिए मुहपत्ती देना, पानी छानने के छन्न देना, औषध आदि देना, सार्मिक वात्सल्य करना तथा यथाशक्ति गुरु का विनय करना चाहिए।
हरेक महीने में अमुक सामायिक तथा वर्ष में अमुक पौषध, अतिथिसंविभाग करने चाहिए । चौमासी नियम पर विजयश्री कुमार का दृष्टान्त है ।
* चौमासी नियम पर विजयश्री कुमार का दृष्टान्त * विजयपुर नगर में विजयसेन नाम का राजा था। उसके बहुत से पुत्र थे। उनमें विजयश्री रानी का पुत्र राज्यधुरा को वहन करने में योग्य होने से—'इसे अन्य कोई मार न दे' इस दृष्टि से राजा उसको सम्मान नहीं देता था। राजा के इस व्यवहार से उस राजपुत्र को खेद हुआ। वह सोचने लगा। "पैर से तिरस्कृत धूल भी तिरस्कार करने वाले के मस्तक पर चढ़ती है अतः मौन होकर अपमान सहन करने वाले की अपेक्षा तो वह घुल श्रेष्ठ है"-अतः मुझे यहाँ रहने से क्या मतलब ? अब मैं देशान्तर जाऊंगा। "घर से बाहर निकलकर जो पुरुष आश्चर्यों से रम्य सम्पूर्ण पृथ्वीमण्डल को नहीं देखता है, वह पुरुष कुए में रहे हुए मेंढक के समान है।"
"पृथ्वीतल पर भ्रमण करने वाला व्यक्ति देश की भाषाओं को जानता है तथा वहाँ की विचित्र प्रकार की नीतियों को जानता है तथा अनेक प्रकार के आश्चर्यों को देखता है।"
इस प्रकार विचार कर वह राजकुमार हाथ में तलवार लेकर एक रात को अपने भवन से निकल गया और पृथ्वी पर इच्छापूर्वक भ्रमण करने लगा।
एक बार वह किसी जंगल में मध्याह्न समय भूख और प्यास से दुःखी होने लगा। उसी य सर्व अलंकारों से अलंकृत किसी दिव्य पुरुष ने आकर उसे स्नेहपूर्वक बुलाकर सर्वउपद्रवों को दूर करने वाला एक रत्न और सर्व इष्ट को साधने वाला दूसरा रत्न प्रदान किया।
कुमार ने पूछा--"तुम कौन हो?" उसने कहा-"अपने नगर में पहुंचने पर मुनि की वाणी से मेरे चरित्र को जान सकोगे।"
उसके बाद वह राजकुमार उस रत्न की महिमा से इच्छापूर्वक विलास करता हुआ कुसुमपुर नगर में आया। उस नगर के महाराजा देवशर्मा की अाँख में भयंकर पीड़ा होने से उनकी पीड़ानिवारण के लिए पटह बजाया गया था। राजकुमार ने उस रत्न के प्रभाव से राजा की पीड़ा दूर की। प्रसन्न होकर राजा ने राज्य तथा अपनी पुण्यश्री नाम की पुत्री प्रदान की और स्वयं ने दीक्षा स्वीकार कर ली। बाद में उसके पिता राजा ने भी उस राजकुमार को अपना राज्य सौंपकर दीक्षा स्वीकार कर ली। इस प्रकार वह दोनों राज्यों पर अपना शासन चलाने लगा।