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श्रावक जीवन-दर्शन / २२१
सूर्योदय के अनुसार ही दिन का व्यवहार होता है । कहा भी है- "जिस तिथि में सूर्य उदय होता है, उसी तिथि में चातुर्मासिक, वार्षिक, पाक्षिक, पंचमी व अष्टमी आदि समझना चाहिए, अन्य में नहीं ।" "जिस तिथि में सूर्य उदय हुआ हो, उसी तिथि में पूजा, पच्चवखारण, प्रतिक्रमण तथा नियमग्रहण आदि करना चाहिए ।'
"सूर्य उदय में जो तिथि होती है, वही तिथि प्रमाण गिनी जाती है, अन्य तिथि करने पर आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना का पाप लगता है ।"
पाराशर स्मृति में भी कहा है- "सूर्योदय के समय जो तिथि थोड़ी भी हो उसे सम्पूर्ण ही माननी चाहिए । यदि दूसरी तिथि अधिक समय रहती हो परन्तु सूर्योदय के समय उसका अस्तित्व न हो तो वह नहीं मानी जाती ।"
श्रीमद् उमास्वाति वाचक का भी प्रघोष है - " तिथि का क्षय होने पर पूर्व की तिथि के दिन कार्य करना चाहिए और तिथि की वृद्धि होने पर दूसरी तिथि के दिन आराधना आदि करनी चाहिए । श्री वीर भगवान के केवलज्ञान व निर्वाण कल्याणक की आराधना लोक के अनुसार करनी चाहिए ।"
चाहिए ।
श्री अरिहन्त परमात्मा के गर्भ जन्म आदि पाँच कल्याणकों को भी पर्वतिथि समझना जिस दिन दो या तीन कल्याणक हों उसे विशेष पर्वदिन समझना चाहिए ।
* मौन-एकादशी का महत्त्व
सर्व पर्वदिनों की आराधना करने में असमर्थ श्रीकृष्ण महाराजा ने नेमिनाथ प्रभु को पूछा - " - "प्रभो ! वर्ष में उत्कृष्ट पर्वदिन कौन सा है ?" इस प्रकार पूछने पर नेमि प्रभु ने कहा“भाग्यशाली मगसर सुदी एकादशी जिनेश्वर के पंच कल्याणकों से पवित्र है । इस दिन पाँच भरत व पाँच ऐरावत के कल्याणकों को जोड़ने पर पचास कल्याणक हुए हैं ।" यह बात सुनकर कृष्ण मौन-पौषधोपवास द्वारा उस दिन की आराधना की । उस दिन ' यथा राजा तथा प्रजा' के नियमानुसार सर्वलोक में भी आराधना तिथि के रूप में एकादशी प्रसिद्ध हो गयी ।
पर्वतिथि की आराधना से महान् फल होता है । क्योंकि उससे शुभ आयुष्य का बंध आदि होता है । आगम में भी कहा है-- “भगवन् ! दूज आदि पाँच तिथियों में धर्मानुष्ठान करने का क्या फल होता है ?" "हे गौतम! बहुत फल होता है । क्योंकि इन तिथियों में प्रायः जीव परभव के प्रायुष्य को बाँधता है, अतः इन दिनों में तप आदि धर्मानुष्ठान करने चाहिए, जिससे शुभाष्य का बंध हो परन्तु प्रायुष्य का बंध हो गया हो तो दृढ़ धर्म श्राराधना करने पर भी बद्ध आयुष्य टलता नहीं है । जैसे श्रेणिक राजा को क्षायिक सम्यक्त्व होने पर भी पूर्व में गर्भवती हिरणी के घात समय गर्भपात होने पर अपने स्कन्ध का अभिमान करने से नरक का आयुष्य बँध गया था ।
अन्य दर्शनों के शास्त्रों में भी पर्वदिनों में स्नान - मैथुन आदि का निषेध है। विष्णु पुराण में कहा है- "हे राजेन्द्र ! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा तथा सूर्यसंक्रान्ति के दिन पर्वदिन कहलाते हैं ।" "पर्वदिनों में तेल मालिश करने वाला, स्त्रीभोग करने वाला तथा मांस खाने वाला पुरुष विष्टा व मूत्र के भोजन वाली नरकभूमि में जाता है ।"