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श्राद्धविधि/२१८
कहा है-"जिस वस्तु से कषायों की आग बढ़ती हो, उस वस्तु का त्याग करना चाहिए और जिससे कषायों का उपशमन होता हो, उस वस्तु को ग्रहण करना चाहिए।" ऐसा सुनने में आता है कि प्रकृति से क्रोधी चण्डरुद्राचार्य क्रोध की उत्पत्ति के परित्याग के लिए शिष्यों से अलगही स्थान में रहते थे।
भवस्थिति अत्यन्त दुःखदायी है क्योंकि चारों गतियों में प्रायः दुःख की ही बहुलता रही हुई है। नारक और तिर्यंचों की दुःख की बहुलता प्रतीत ही है। कहा भी है-"सातों नरकों में क्षेत्रवेदना और शस्त्ररहित पारस्परिक उत्पन्न की गयी वेदना है। शस्त्रजन्य वेदना पाँच नरकों में है तथा परमाधार्मिककृत वेदना तीन नरकों में है।" रात दिन पके जाते हुए नरक के जीवों को क्षण मात्र भी सुख नहीं है, नरक में नारकों को सतत दुःख ही रहा हुआ है । "हे गौतम ! नारक जीव नरक में जिस तीव्र वेदना को प्राप्त करते हैं, उससे अनन्त गुणी पीड़ा निगोद में रही हुई है।" तिर्यंच में भी भूख, प्यास, चाबुक की मार, अंकुश आदि की पीड़ा रही हुई है। गर्भ, जन्म, वृद्धावस्था मृत्यु, विविध प्रकार के दुःख तथा रोग, गरीबी आदि के उपद्रवों से मनुष्य भी दुःखी ही है।
देव भव में भी च्यवन, दासत्व, पराभव, ईर्ष्या आदि के दु:ख रहे हुए हैं।
कहा है-अग्नि से लाल बनी हुई सैकड़ों सुइयों के निरन्तर भेदन से जो पीड़ा होती है, उससे पाठ गुणी पीड़ा गर्भ में होती है।
गर्भ में से बाहर निकलते समय और योनियन्त्र में पीलाते समय उपर्युक्त वेदना से लाख अथवा कोटाकोटि गुणी वेदना होती है।
कैद, वध, बन्धन, रोग, धन-हरण, मृत्यु, आपत्ति, मनसंताप, अपयश, तिरस्कार आदि दुःख मनुष्यभव में रहे हुए हैं।
अनावश्यक चिन्ता, सन्ताप, दारिद्रय, रोग आदि से परेशान हुए कई जीव मनुष्य भव को प्राप्त करके भी बेमौत मर जाते हैं। ईर्ष्या, विषाद, मद, क्रोध, माया तथा लोभ आदि से पराभूत देवताओं को भी सुख कहाँ है ?
धर्म-मनोरथ भावना के ___"ज्ञान-दर्शन से युक्त श्रावक के घर में दास होना श्रेष्ठ है किन्तु मिथ्यात्व से मोहित मतिवाला राजा या चक्रवर्ती बनना भी श्रेष्ठ नहीं है।"
संविग्न और गीतार्थ गुरु के पास स्वजनादि संग से रहित होकर मैं कब दीक्षा स्वीकार करूगा?
तप से दुर्बल शरीर वाला होकर भय और भैरव से निष्प्रकम्प होकर श्मशान आदि में कायोत्सर्ग में रहकर कब मैं उत्तम चारित्र का पालन करूगा ?