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श्रावक जीवन-दर्शन / २१३
उनकी योग्यतानुसार उपदेश करना चाहिए । उपदेश में सम्यक्त्वमूल देशविरति धर्म, सर्वकृत्यों में सर्वशक्ति से यतना, अरिहन्त चैत्य व साधर्मिक से रहित स्थान तथा कुसंसर्ग का त्याग, नवकार जाप, त्रिकाल चैत्यवन्दन, पूजा, पच्चक्खाण आदि अभिग्रह तथा यथाशक्ति सात क्षेत्रों में धन का वपन आदि बातें यथायोग्य समझानी चाहिए । दिनकृत्य में कहा है- " जो व्यक्ति अपने परिवार जन को सर्वज्ञप्रणीत धर्म नहीं कहता है वह लोक और परलोक में उनके किये गये पापों से लिप्त बनता है ।" "यह लोकमान्यता है कि जो व्यक्ति चोर को भोजन आदि देता है, वह भी चोर की तरह सजा पाता है, उसी प्रकार धर्म में भी समझना चाहिए ।" अतः तत्त्वज्ञ श्रावक को प्रतिदिन अपने पुत्र, पत्नी, दोहित्र आदि को यथायोग्य वस्त्र आदि प्रदान कर द्रव्यानुशासन और धर्म का उपदेश देकर भावानुशासन करना चाहिए। अनुशासन यानी वे सुखी हैं या दुःखी, इस बात का ध्यान रखना । अन्यत्र भी कहा है
"राष्ट्रकृत पाप राजा को लगता है और राजा के द्वारा किया गया पाप पुरोहित को लगता है । स्त्री का पाप उसके पति को और शिष्य का पाप गुरु को लगता है ।"
पत्नी, पुत्र प्रादि गृहकार्य में व्यग्र होने से एवं प्रमादी होने से, गुरु के पास धर्मश्रवरण में असमर्थ होने पर भी इस प्रकार धर्म में प्रवृत्त हो सकते हैं । इस संदर्भ में धन्यश्रेष्ठी का उदाहरण है ।
धन्य श्रेष्ठो
गुरु के उपदेशों को सुनकर सुश्राद्ध बना धन्य श्रेष्ठी प्रतिदिन सायंकाल अपनी पत्नी व चारों पुत्रों को प्रतिबोध देता । क्रमशः पत्नी व तीन पुत्र तो प्रतिबोध को प्राप्त हुए परन्तु चौथा पुत्र नास्तिक की तरह पुण्य-पाप का फल कहाँ है ? इस प्रकार कहकर प्रतिबोधित नहीं हुआ । उसके प्रतिबोध हेतु श्रेष्ठी के मन में काफी दुःख था ।
एक बार पड़ोस में मरणासन्न अवस्था में रही वृद्ध सुश्राविका को उसने निर्यामरणा कराते हुए कहा - " देवी बनने पर मेरे पुत्र को प्रतिबोध देना ।" वह वृद्धा मरकर सौधर्म देवलोक में देवी बनी । उसने अपनी दिव्यऋद्धि बताकर उस पुत्र को प्रतिबोध दिया। इस प्रकार घर के मालिक को अपनी प्रिया, पुत्र आदि को प्रतिबोध देना चाहिए । प्रयत्न करने पर भी यदि कोई प्रतिबोध न पाये तो उसमें गृहपति का कोई दोष नहीं है । कहा भी है- "हित का श्रवण करने से सभी श्रोताओं को एकान्त लाभ (धर्म) हो यह जरूरी नहीं है, परन्तु अनुग्रह बुद्धि से बोलने वाले को तो अवश्य ही लाभ होता है ।" "प्रायः प्रब्रह्म से रहित श्रावक समय पर अल्प निद्रा करता है । निद्रा से जगने पर स्त्रीदेह की अशुचिता का विचार करना चाहिए ।" "स्वजनों को धर्मोपदेश देने के बाद रात्रि का एक प्रहर बीतने पर अपने शरीर की अनुकूलतानुसार उचित शय्या पर जाकर अल्प निद्रा लेनी चाहिए । श्रावक को प्राय: अब्रह्म ( मैथुन) का त्याग करना चाहिए । जीवनपर्यन्त अब्रह्म-त्याग सम्भव न हो तो भी पर्व तिथि आदि अनेक दिनों में तो ब्रह्मव्रत का अवश्य पालन करना चाहिए। नवयौवन वय में ब्रह्मचर्य पालन महाफलदायी है ।
महाभारत में कहा है – हे युधिष्ठिर ! होती है, वह हजारों यज्ञों से भी नहीं होती है ।
एक रात्रि में ब्रह्मचर्य पालन से भी जो गति (लाभ)