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श्रावक जीवन-दर्शन/२०१
फिर करेमि भंते और इच्छामि ठामि.......बोलकर चारित्राचार की शुद्धि के लिए दो लोगस्स का कायोत्सर्ग करना चाहिए।
कायोत्सर्ग पूर्ण कर सम्यक्त्व की शुद्धि के लिए 'लोगस्स' सूत्र पढ़ना चाहिए। फिर 'सव्वलोए अरिहंत........' कहकर सर्वलोक में रहे अरिहंत-चैत्यों की आराधना के लिए एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करना चाहिए।
उसके बाद शुद्ध सम्यक्त्वधारी होकर श्रुत-विशुद्धि के लिए "पुक्खरवरदीवढ्ढे" सूत्र बोलना चाहिए और पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग पूर्ण कर समस्त कुशल क्रिया के फल को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों की स्तुति रूप 'सिद्धस्तव' (सिद्धारणं बुद्धाणं) पढ़ना चाहिए। उसके बाद श्रुत की समृद्धि के लिए श्रुतदेवी का एक नवकार का कायोत्सर्ग करें और उसके बाद श्रुतदेवी की स्तुति सुनें अथवा बोलें।
उसके बाद इसी प्रकार क्षेत्रदेवता का कायोत्सर्ग कर स्तुति स्वयं कहें अथवा सुनें। उसके बाद नवकारमंत्र पढ़कर संडासकों का प्रमार्जन करके नीचे बैठकर पूर्व विधि से ही मुहपत्ती का पडिलेन कर वांदणा देकर "इच्छामो अणुसद्धि" कहकर घुटने को ऊँचा कर गुरु के द्वारा स्तुति कही जाने पर वर्धमान अक्षरों से और उच्च स्वर से 'नमोस्तु वर्धमानाय' की तीन गाथा पढ़े। उसके बाद 'नमोत्थरण ' कहकर प्रायश्चित्त के लिए कायोत्सर्ग करें।
+ राई-प्रतिक्रमण विधि के राई-प्रतिक्रमण की विधि भी उपर्युक्त प्रकार से है, उसमें जो फर्क है, वह बतलाते हैं । प्रथम 'मिच्छा मि दुक्कडम्' देकर शुक्रस्तव कहना चाहिए। फिर खड़े होकर विधिपूर्वक एक 'लोगस्स' का कायोत्सर्ग करना चाहिए। उसके बाद दर्शनशुद्धि के लिए पुनः एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करना चाहिए।
तीसरे कायोत्सर्ग में रात्रि सम्बन्धी अतिचारों का चिन्तन करना चाहिए। उसके बाद 'सिद्धस्तव' कहकर संडासकों का प्रमार्जन कर नीचे बैठना, फिर पूर्व के जैसे मुहपत्ती का पलेडिहन कर वांदणे देने। फिर 'राइयं आलोचेउ' यह सूत्र पढ़कर प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ें। उसके बाद वांदणा, खामणा और वांदणा देकर तीन गाथा कहकर कायोत्सर्ग करना चाहिए। उस कायोत्सर्ग में इस प्रकार चिन्तन करें-"जिस प्रकार मेरे संयमयोगों की हानि न हो उस प्रकार तपश्चर्या अंगीकार करूंगा।" जैसे कि छहमास तप की शक्ति है ? परिणाम है ? शक्ति नहीं परिणाम नहीं, इस तरह चिन्तन करें। फिर एक से लेकर कम करें, यावत् उनतीस तक, ऐसा करते हुए सामर्थ्य नहीं, ऐसा चिन्तन करें। यावत् पंचमासी तप की भी शक्ति नहीं। उसमें भी एक-एक कम करते हुए, यावत् चार मास तक, तीन मास तक, दो मास तक और फिर एक मास तप की भी शक्ति नहीं, यह चिन्तन करें। उस एक मास में से भी तेरह दिन कम करके फिर चौंतीस भक्त में से भी दो-दो भक्त कम करते हए उपवास, प्रायम्बिल, एकासना, बियासणा......."और क्रमशः साढ़पोरिसी, पोरिसी......"नवकारसी का चिन्तन करना चाहिए।
जिस तप की शक्ति हो उसे हृदय में धारण करना चाहिए......फिर कायोत्सर्ग पूर्ण कर