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श्राद्धविधि / २०८
कल्पभाष्य में कहा है- "किसी समय किसी आचार्य द्वारा प्रशठता से जो कुछ भी निरवद्य आचरण किया गया हो और दूसरे प्राचार्यों ने उसका प्रतिषेध नहीं किया हो और वह बहुतों के द्वारा सम्मत हो तो वह ग्राचरित कहलाता है ।"
'तीर्थोद्गार' नाम के ग्रन्थ में भी कहा है- "शालिवाहन राजा ने संघ के प्रदेश से कालिकाचार्य के पास चतुर्दशी के दिन चातुर्मासिक और चतुर्थी के दिन संवत्सरी कराई थी । वीरनिर्वाण के 993 वें वर्ष में चतुर्विधसंघ ने ( पक्खी) चतुर्दशी के दिन चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया था और वह प्राचरण प्रमाणभूत है ।"
इस संदर्भ में विशेष जिज्ञासा हो तो पूज्य श्री कुलमंडन सूरिजी द्वारा विरचित 'विचार अमृतसंग्रह ' ग्रन्थ देखना चाहिए ।
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देवसिक प्रतिक्रमण विधि 5
'योगशास्त्र' की टीका के अन्तर्गत चिरन्तन प्राचार्य के द्वारा प्रणीत इन गाथाओं से प्रतिक्रमण की विधि समझनी चाहिए ।
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पाँच प्रकार के आचारों की शुद्धि के लिए साधु अथवा श्रावक को गुरु के साथ और गुरु विरह में अकेले भी प्रतिक्रमण करना चाहिए ।
चैत्यवन्दन करके 'भगवानहं' इत्यादि चार खमासमरण देकर भूमि पर मस्तक स्थापित कर सकल प्रतिचारों का 'मिच्छामि दुक्कडम्' देना चाहिए ।
सामायिक ( करेमि भंते ) पूर्वक 'इच्छामि ठामि काउसग्गं' बोलकर भुजा को लम्बी रख कर कोहनी से पहने हुए वस्त्र को धारण करके घोटक आदि दोषों से रहित कायोत्सर्ग करना चाहिए । उस समय नाभि से नीचे तथा जानु से चार अंगुल ऊँचा कटिवस्त्र धारण करना चाहिए ।
कायोत्सर्ग में यथाक्रम से दिनकृत प्रतिचारों को हृदय में धारण करना चाहिए और कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर 'नमो अरिहंताणं' बोलकर चतुर्विंशति स्तव पढ़ना चाहिए ।
उसके बाद संडासकों का प्रमार्जन कर दूसरी जगह अपने दोनों हाथों को न लगाते हुए नीचे बैठकर भुजाओं को संकुचित कर मुहफ्ती तथा काया की पच्चीस-पच्चीस बोल से प्रतिलेखना करनी चाहिए । फिर खड़े होकर विनयसहित उत्कटासन से बैठकर विधिपूर्वक गुरु को वन्दन करना चाहिए | वन्दन बत्तीस दोष से रहित और पच्चीस आवश्यक की विशुद्धिपूर्वक करना चाहिए । उसके बाद अवनत होकर हाथ में रजोहरण ( चरवला) व मुहपत्ती को धारण कर प्रतिचारों का चिन्तन करके यथानुक्रम गुरु- सम्मुख प्रगट रूप से प्रतिचार कहने चाहिए ।
उसके बाद नीचे बैठकर सामायिक ( करेमि भंते ) इत्यादि पाठ प्रगट रूप से कहना चाहिए । फिर 'अभुट्टिम.... ' इत्यादि पाठ द्रव्य एवं भाव से खड़े रहकर विधिपूर्वक कहना चाहिए ।
फिर वांदरणा देकर पाँच आदि साधु हों तो तीन बार वन्दन कर 'आयरिय उवज्झाए " इत्यादि तीन गाथा पढ़नी चाहिए ।