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श्राद्धविधि/२०२
ज्वर तथा आँख के रोग आदि में, देव और गुरु के वन्दन का योग नहीं होने पर, तीर्थ तथा गुरु को नमस्कार के समय, विशेष धर्म का स्वीकार करते समय, महान् पुण्यकार्य को प्रारम्भ करने के दिन तथा अष्टमी-चतुर्दशी आदि विशेष पर्व में भोजन का त्याग करना चाहिए।
मासक्षमण आदि तप इस लोक और परलोक, उभयलोक में गुणकारी हैं। कहा हैतप से अस्थिर भी कार्य स्थिर, वक्र भी सरल तथा असाध्य कार्य भी सुसाध्य हो जाता है।
वासुदेव तथा चक्रवर्ती आदि के भी (उन-उन देवताओं को सेवक बनाने के लिए) इस लोक के कार्य अट्ठम आदि तप से ही सिद्ध होते हैं, उनके बिना सिद्ध नहीं होते हैं ।
॥ इस प्रकार भोजन-विधि समाप्त हुई ॥ श्रावक भोजन करने के बाद नवकार के स्मरणपूर्वक खड़ा हो और यथायोग्य देव व गुरु को चैत्यवन्दन द्वारा वन्दन करे।
भोजन के बाद दिवसचरिम अथवा ग्रंथी सहित आदि पच्चक्खाण, गुरु आदि को दो वांदणा देकर अथवा उसके बिना ग्रहण करे। तत्पश्चात् गीतार्थ मुनि के पास अथवा गीतार्थ श्रावक, सिद्धपुत्र आदि के पास वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा और अनुप्रेक्षा लक्षण रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करे। 1. निर्जरा के लिए यथोचित सूत्र को देना अथवा ग्रहण करना वाचना कहलाता है। 2. वाचना में शंका होने पर गुरु को पृच्छा करना पृच्छना कहलाता है। 3. पूर्व में याद किये गये सूत्र आदि की स्मृति के लिए पुन:पुनः याद करना, उसे परावर्तना
कहते हैं। 4. जंबु स्वामी आदि स्थविर के चरित्र को सुनना व कहना-उसे धर्मकथा कहते हैं । 5. मन से ही सूत्र आदि का अनुस्मरण करना-उसे अनुप्रेक्षा कहते हैं ।
योगशास्त्र की उक्ति के अनुसार उन-उन शास्त्रों के रहस्यों के जानकार पुरुषों के साथ शास्त्र के रहस्यों की विचारणा करनी चाहिए इसलिए श्रीगुरुमुख से सुने हुए शास्त्र के रहस्यों के परिशीलन रूप स्वाध्याय को विशेष कृत्य के रूप में समझना चाहिए। उससे अनेक फायदे होते हैं। कहा है-"स्वाध्याय से प्रशस्त ध्यान होता है, सर्वपरमार्थ का ज्ञान होता है, स्वाध्याय करने से प्रतिक्षण वराग्य उत्पन्न होता है।" ... पाँच प्रकार के स्वाध्याय के दृष्टान्त ग्रन्थकार ने प्राचारप्रदीप ग्रन्थ में निर्दिष्ट किये होने से यहाँ नहीं कहे हैं।
संध्या कृत्य ॥ संध्या के समय पुनः जिनपूजा, प्रतिक्रमण तथा विधिपूर्वक मुनियों की भक्ति कर स्वाध्याय करें और घर जाकर स्वजनों को धर्म का उपदेश कहें।