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श्राद्धविधि/२००
बुद्धिमान पुरुष सिर्फ एक वस्त्र पहिनकर भोजन न करें। भीगे वस्त्रों में तथा मस्तक लपेट कर भोजन न करें। अपवित्र शरीर से एवं लोलुपतापूर्वक भोजन न करें। जूते पहिनकर भोजन न करें। व्यग्रचित्त होकर भोजन न करें। केवल जमीन पर बैठकर भोजन न करें। पलंग पर बैठकर भोजन न करें। विदिशा तथा दक्षिण दिशा सम्मुख बैठकर भोजन न करें। तुच्छ आसन पर बैठकर भोजन न करें। आसन पर पैर रखकर, कुत्ते, चाण्डाल व पतित व्यक्ति की दृष्टि जहाँ पड़ती हो, वहाँ बैठकर भोजन न करें। टूटे हुए मलिन भाजन में भोजन न करें।
गन्दी वस्तु से उत्पन्न भोजन न करें, गर्भ-हत्यारों से देखे हुए भोजन को न करें। रजस्वला स्त्री से स्पर्श किया गया तथा गाय, कुत्ते तथा पक्षी से सूघा हुआ आहार ग्रहण न करें। अज्ञात वस्तु न खाएँ। जिस वस्तु के आगमन का पता न हो उस वस्तु का भक्षण न करें। पुनः गर्म किया गया भोजन न करें। भोजन करते समय मुख से चप-चप शब्द न करें तथा मुख को विकृत कर भोजन न करें।
___मधुर आमन्त्रण से प्रसन्नचित्त वाले इष्ट देवता के स्मरणपूर्वक भोजन करें। सम, पर्याप्त चौड़े, अति उच्च नहीं हो ऐसे स्थिर आसन पर बैठकर भोजन करें। मौसी, माता, बहिन तथा स्त्री द्वारा आदर से पकाया गया और उन्हीं के द्वारा परोसा हुआ तृप्ति देने वाला पवित्र भोजन अन्य लोगों की अनुपस्थिति में करें। भोजन करते समय मौन रहें। भोजन करते समय शरीर को टेढ़ा न रखें। दाहिना स्वर बहता हो तब भोजन करें। भोजन की प्रत्येक वस्तु को पहले सूध लें क्योंकि इससे दृष्टिदोष की विकृति दूर हो जाती है। अति खारा, अति खट्टा, अति गर्म, अति ठण्डा भोजन न करें। अधिक शाक भी न खायें। अति मीठा न खायें और जो रुचिकर हो, वह भोजन.करें।
अतिशय गर्म वस्तु को खाने से रस का नाश होता है। अत्यन्त खट्टी वस्तु खाने से इन्द्रियों की हानि होती है। अत्यन्त खारी वस्तु खाने से चक्षु को नुकसान होता है और अति स्निग्ध वस्तु खाने से पेट खराब होता है। कड़वे और तिक्त आहार से कफ का, कषैले और मधुर आहार से पित्त का, स्निग्ध और गर्म पाहार से वायु का और उपवास से शेष रोगों का नाश होता है। शाक का त्यागी व भोजन के साथ घी खाने वाला, बहुत पानी नहीं पीने वाला, दूधदही का सेवन करने वाला, अधिक मूत्र करने वाला, द्रव्य न लेने वाला, पक्व भोजन को करने वाला, चलते-चलते नहीं खाने वाला तथा पहले किया हुआ भोजन पचने पर खाने वाला नीरोग होता है।
नीति के ज्ञाता व्यक्ति दुर्जन की मैत्री के समान प्रारम्भ में मधुर, मध्य मे तीखा और उसके बाद कड़वा भोजन चाहते हैं। प्रथम सुस्निग्ध और मधुर रस से युक्त भोजन करना चाहिए, मध्य में अम्ल और लवण रस और अन्त में कटु और तिक्त रस का भोजन करना चाहिए। प्रारम्भ में पतला रस, मध्य में कड़वा रस और अन्त में पुनः जो द्रव पदार्थ खाता है, उसके बल व आरोग्य का नाश नहीं होता है।
भोजन के प्रारम्भ में जल पीने से अग्नि मन्द होती है, मध्य में जल पीने से वह जल रसायन का काम करता है और भोजन के अन्त में जलपान करने से वह विष का काम करता है।