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श्राद्धविधि/ ११६
“पहले जिसका संकल्प किया हो वह पच्चक्खाण अथवा उससे अधिक पच्चक्खाण गुरु-साक्षी से लेना चाहिए, क्योंकि धर्म के साक्षी गुरु हैं ।"
* गुरु- साक्षी धर्म से लाभ
1. गुरु साक्षी से धर्म / व्रत में दृढ़ता श्राती है ।
2. 'धर्म गुरु साक्षी हो' - जिनेश्वर की इस आज्ञा का पालन होता है ।
3. गुरुवचन की प्रेरणा से शुभ भाव उत्पन्न होने से क्षयोपशम अधिक होता है ।
4. क्षयोपशम अधिक हो जाने से पूर्व निश्चित पच्चवखारण से भी अधिक पच्चवखाण लेने की इच्छा होती है ।
श्रावक प्रज्ञप्ति में कहा है-
" पहले से ही पच्चक्खाग लेने के परिणाम होने पर भी गुरु के पास जाने से परिणाम की ढ़ता होती है, भगवान की आज्ञा का पालन होता है और कर्म के क्षयोपशम में वृद्धि होती है ।"
यदि सम्भव हो तो दिवस सम्बन्धी और चातुर्मास सम्बन्धी नियम भी गुरुसाक्षी से ग्रहण करने चाहिये ।
पाँच नामादि, बाईस मूल तथा 492 प्रतिद्वार सहित द्वादशावर्त वन्दन की विधि गुरुवन्दन भाष्य आदि से और दश प्रत्याख्यानादि, नौ मूल द्वार और 90 प्रतिद्वार सहित पच्चवखाण की विधि पच्चक्खाण भाष्य श्रादि से समझ लेनी चाहिए। ऊपर तो सिर्फ पच्चवखारण का लेश ही स्वरूप बतलाया है ।
* पच्चक्खाण का फल
पच्चक्खाण इस लोक और परलोक दोनों में हितकारी है ।
धम्मिल कुमार ने छह मास श्रायंबिल का तप किया था । इसके फलस्वरूप बड़े श्रेष्ठी, राजा तथा विद्याधरों की बत्तीस कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहरण हुआ था, यह इहलोक फल समझना चाहिए ।
चार हत्याएँ करने वाला दृढ़ प्रहारी छहमास के तप के फलस्वरूप उसी भव में मुक्ति में गया, यह पारलौकिक फल समझना चाहिए। कहा भी है
पच्चक्खाण करने से आस्रवद्वार बन्द हो जाते हैं । प्रास्रव के उच्छेद से तृष्णा का उच्छेद होता है । तृष्णा के उच्छेद से मनुष्य अत्यन्त उपशान्त बनता है । अत्यन्त उपशम से पच्चक्खाण शुद्ध होता है। शुद्ध पच्चक्खाण से चरित्र धर्म की प्राप्ति होती है और चरित्र धर्म की प्राप्ति से कर्मों का क्षय होता है । कर्म के क्षय से क्षपक श्रेणी का प्रारम्भ होता है और उससे 'केवल' उत्पन्न होता है और केवलज्ञान के बाद शाश्वत सुख स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है ।
उसके बाद अन्य साधु-साध्वी आदि चतुविध-संघ को यथाविधि वन्दन करना चाहिए ।