________________
श्राद्धविधि / १४०
जन्म के बाद उस बालक ने कहा - " मुझ पर तुम्हारा उन्नीस लाख सोनैयों का कर्ज है ।" बाद में उसका नाम जावड़शाह रखा गया । उसने माता-पिता के नाम पर उतना धन धर्मादे खाते निश्चित कर नौ लाख स्वर्णमुद्राएँ खर्च कर ऋषभदेव, पुंडरीक स्वामी और चक्रेश्वरी की मूर्ति काश्मीर में लेकर, दस लाख स्वर्णमुद्राएँ खर्च कर उनका प्रतिष्ठा ( अंजन - शलाका) महोत्सव किया । उसके बाद अठारह जहाजों से उपार्जित अनगिनत स्वर्णमुद्राएँ लेकर वह शत्रु जय महातीर्थ पर गया और वहाँ लेप्यमय प्रतिमाओं को उत्थापित कर उनके स्थान पर मम्मारणी रत्न की वे तीन प्रतिमाएँ स्थापित कीं । इस प्रकार भवान्तर में ऋणमुक्ति की ।
ऋरण के सम्बन्ध में प्रायः कलह नहीं मिटने के कारण वैर की वृद्धि आदि होती है अतः वर्तमान भव में ही किसी भी प्रकार से ऋणमुक्त बनने का प्रयास करना चाहिए ।
अन्य व्यवहार में भी यदि कुछ धन वापस न मिले तो उसे धर्मादा खर्च में डाल देना चाहिए जिससे पुण्य प्राप्ति हो सके। इसी कारण मुख्यतया साधर्मिकों के साथ ही व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि साधर्मिक के पास अपना कुछ धन रह भी जाय तो भी उसका उपयोग धर्म में होगा ।
म्लेच्छ व अनार्य व्यक्ति के पास रहे धन का तो किसी पुण्य कार्य में उपयोग नहीं हो सकता है, अतः उस धन की प्राप्ति की सम्भावना न हो तो उसका त्याग कर देना ही उचित है। कदाचित् त्याग कर देने के बाद म्लेच्छ आदि से अपना धन प्राप्त हो जाए तो उसे धर्मादे में खर्च करने के लिए संघ को सौंप देना चाहिए ।
इसी प्रकार अपना द्रव्य, कोई वस्तु अथवा शस्त्र आदि खो जाय अथवा कोई ले जाय और मिलने की सम्भावना न हो तो उसे वोसिरा देना चाहिए, ताकि उस वस्तु से जन्य पाप न लगे । इस युक्ति से अनन्त भव सम्बन्धी घर- देह, कुटुम्ब, धन, शस्त्र आदि सभी पाप की हेतुभूत वस्तुएँ विवेकी पुरुष को वोसिरा देनी चाहिए, अन्यथा उन उन वस्तुनों से जन्य दुष्कृत (पाप) की अनन्त भवों से भी निवृत्ति नहीं होती है अर्थात् उन सब वस्तुओं से जन्य पाप लगता है ।
यह बात सिद्धान्त - विरुद्ध भी नहीं है। भगवती सूत्र के पाँचवें शतक के छठे उद्द ेश में कहा है कि जब शिकारी ने हिरण को मारा, तब जिस धनुष, बाण, डोरी और लोहे से उसकी हत्या हुई उस धनुष प्रादि के मूल जीवों को भी हिंसादि पापक्रिया लगती है ।
अचानक कभी धनहानि हो जाय तो भी विवेकी पुरुषों को विह्वल नहीं बनना चाहिए, क्योंकि अनिर्वेद ही लक्ष्मी का मूल है। कहा भी है- “सुव्यवसायी, कुशल, क्लेश को सहन करने वाला, विवेकपूर्वक कार्यारम्भ करने वाला यदि पीछा करे तो लक्ष्मी कितनी दूर जायेगी ?"
जहाँ धन कमाया जाता है, वहाँ कुछ खोना भी पड़ता है । किसान को पहले बीज खोने ही पड़ते हैं, उसके बाद ही उसे ढेर सा अनाज मिलता है ।
दुर्भाग्यवश भयंकर प्रार्थिक हानि हो जाय तो भी दीन नहीं बनना चाहिए बल्कि धर्म करना श्रादि जो उसका उचित प्रतिकार है, उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। कहा भी है- " म्लान हुआ