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श्राद्धविधि/१९६
देना चाहिए। अथवा अपने हाथ में पात्र को धारण कर पास में खड़े रहकर पत्नी आदि के द्वारा दान दिलवाना चाहिए। .
__भिक्षा के बयालीस दोष पिण्डविशुद्धि आदि ग्रन्थों से समझ लेने चाहिए। दान देने के बाद मुनि को वन्दन कर कम-से-कम उन्हें अपने घर के द्वार तक छोड़ने जाना चाहिए। -------
साधु भगवन्तों का योग न हो तो "मेघ बिना की वृष्टि की भाँति अचानक ही मुझे साधु भगवन्तों का योग मिल जाय तो कितना अच्छा हो जाय"-इस प्रकार विचार कर सभी दिशाओं में अवलोकन करना चाहिए। कहा भी है-"जो वस्तु साधु भगवन्त को प्रदान न की हो, उस वस्तु को श्रावक नहीं खाता है। अत: भोजन का समय होने पर द्वार का अवलोकन अवश्य करना चाहिए।"
अन्य प्रकार से साधु का निर्वाह हो सकता हो तब अशुद्ध आहार, देने वाले और लेने वाले दोनों के लिए अहितकर है और दुर्भिक्ष और ग्लान आदि अवस्था में अन्य प्रकार से निर्वाह न होने पर दिया व लिया गया वही भोजन रोगी के दृष्टान्त से लाभ का कारण बनता है। विहार से थके हुए को, रोगी को, आगम के अभ्यासी को, जिसने लोच किया हो उसे तथा उत्तरपारणे में दिया हुआ दान बहुत फलदायक होता है ।
इस प्रकार देश और क्षेत्र का विचार कर श्रावक को प्रासुक और एषणीय वस्तु का समुचित दान करना चाहिए। प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, औषध (एक द्रव्य) तथा भेषज (अनेक औषधियों का संग्रह) देना चाहिए।
(साधु-निमन्त्रण और भिक्षाग्रहण आदि की विशेष विधि ग्रन्थकारकृत श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र की टीका से समझ लेनी चाहिए।)
सुपात्रदान ही अतिथि-संविभाग व्रत कहलाता है। आगम में भी कहा है-"न्याय से प्राप्त कल्पनीय अन्न-पान आदि द्रव्यों का देश, काल, श्रद्धा, सत्कार तथा क्रम से युक्त परम भक्तिपूर्वक प्रात्मा के अनुग्रह की बुद्धि से संयत मुनियों को दिया गया दान अतिथिसंविभाग कहलाता है।"
सुपात्रदान से दिव्य तथा औदारिक अद्भुत भोगों की प्राप्ति होती है। सुपात्रदान से 'अभीष्ट सभी प्रकार के सुख, समृद्धि, साम्राज्य आदि की प्राप्ति तथा शीघ्र ही मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। कहा है-"अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पादान, उचितदान और कीर्तिदान में से प्रथम दो मोक्ष और शेष तीन भोग आदि प्रदान करते हैं।"
पात्रता के भेद-उत्तम पात्र साधु हैं, मध्यम पात्र श्रावक हैं और जघन्य पात्र अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक कहे गये हैं ।
हजारों मिथ्यादृष्टियों से एक अणुव्रती श्रेष्ठ है और हजारों अणुव्रतियों से एक महाव्रतधारी श्रेष्ठ है। हजारों महाव्रतधारियों में एक तत्त्वज्ञानी श्रेष्ठ है। तत्त्वज्ञानी के समान श्रेष्ठ पात्र न है और न ही होगा।
"सत्पात्र का योग, अत्यन्त श्रद्धा योग्य काल में यथोचित दान तथा धर्म-सामग्री की प्राप्ति · बहुत पुण्य से होती है।"