________________
श्राद्धविधि/१८०
पुत्रवधू के साथ औचित्य के पुत्र की तरह पुत्रवधू को भी योग्यतानुसार कार्यभार सौंपना चाहिए। जैसे धन श्रेष्ठी ने अपनी चार पुत्रवधुओं को चावल के पाँच-पाँच दाने देकर उनकी परीक्षा की थी और उसके बाद चौथी वधू रोहिणी को गृह-स्वामिनी बनाया था और उज्झिका को सफाई का काम, भोगवती को रसोई का काम और रक्षिका को अर्थचिन्ता का काम सौंपा था।
पुत्र की प्रत्यक्ष प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। पुत्र यदि व्यसनों में फंस गया हो तो उसे व्यसनों की भयंकरता समझानी चाहिए। आय, व्यय और बचत पुत्र के पास हो तो स्वयं तपास करनी चाहिए।
गुरु की प्रशंसा गुरु के समक्ष प्रत्यक्ष करें। मित्र व बन्धुओं की प्रशंसा परोक्ष में करें। दास व नौकरों की प्रशंसा उनके कार्य की समाप्ति के बाद करें। स्त्री की प्रशंसा उसके मरने के बाद करें, परन्तु पुत्र की प्रशंसा कभी न करें। इस वचन से पुत्र की प्रशंसा अनुचित होने पर भी यदि करनी ही पड़े तो भी प्रत्यक्ष तो कभी न करें, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रशंसा से पुत्र के गुणों का विकास रुक जाता है और उसे अभिमान पैदा होने की सम्भावना रहती है।
धू त आदि के व्यसनी पुत्रों को व्यसनों के परिणामस्वरूप निर्धनता, तिरस्कार, तर्जना, ताड़ना आदि की दुर्दशा समझावें ताकि वे व्यसनों से बच सकें। पुत्र की आय, व्यय व बचत आदि के हिसाब को देखने से पुत्र की स्वच्छन्दता दूर होती है।
पुत्र को राजसभा बतानी चाहिए और देश-विदेश के आचार-व्यवहार बताने चाहिए। राजसभा से परिचय न हो और कदाचित् आपत्ति आ जाय तो रक्षण का कोई उपाय नहीं सूझता है और निष्कारण द्वेषी और पर-सम्पत्ति के ईर्ष्यालु दुष्ट पुरुषों से परेशानी उठानी पड़ती है। कहा भी है-"राजकुल (सभा) में जाना चाहिए और राजमान्य लोगों को देखना चाहिए, इससे कदाचित् अर्थलाभ न हो तो भी अनर्थ का नाश तो होता ही है।" देश-विदेश के आचार-व्यवहार का ज्ञान न हो और प्रयोजनवश कभी देशान्तर जाना पड़े तो वहाँ के लोग विदेशी समझकर आपत्ति में डाल सकते हैं। इस प्रकार पुत्र की तरह पुत्री के और पिता की तरह माता के और पुत्रवधू के सम्बन्ध में उचित आचरण करना चाहिए।
सौतेले पुत्र के साथ औचित्य-पालन में विशेष ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि सौतेले पुत्र के हृदय में माँ के प्रति थोड़ा भेद होने से उसे बात-बात में कुछ कम (अनादर/उपेक्षा) ही लगता है। इस विषय में सौतेली माँ के द्वारा दी गयी उड़द की राब की उल्टी करने वाले पुत्र का दृष्टान्त समझना चाहिए।
+ स्वजनों का औचित्य है पिता-माता और पत्नी के पक्ष के लोग स्वजन कहलाते हैं । अपने घर में पुत्र जन्म आदि हो तो हमेशा स्वजनों का आदर-सत्कार करना चाहिए। वे आपत्ति में हों अथवा उनके घर महोत्सव हो तो उनके समीप रहना चाहिए। वे निर्धन हो जाँय अथवा रोगातुर हो जाँय तो उन्हें उस कष्ट से मुक्त करना चाहिए। कहा है-“रोग में, आपत्ति में, अकाल में, शत्र-संकट में, राजद्वार में और