________________
श्राद्धविधि / १७८
कहा भी है- "जिस घर में स्त्री, पुरुष की तरह बलवती होती है, वह घर जल्दी ही नष्ट हो जाता है ।"
* मंथर कोली का दृष्टान्त
किसी नगर में मंथर नाम का कोली रहता था। वह एक दिन वस्त्र बुनने की लकड़ी लेने के लिए जंगल में गया । वह व्यन्तर अधिष्ठित शीशम के वृक्ष को काटने लगा । व्यन्तर ने उसे निषेध किया फिर भी वह रुका नहीं । उसे साहसी जानकर व्यन्तर ने उसे वरदान मांगने के लिए कहा । वह स्त्री का गुलाम होने से स्त्री को पूछने के लिए घर जाने लगा । मार्ग में एक हज्जाम मित्र ने उसे राज्य मांगने की सलाह दी। फिर भी उस सलाह को स्वीकार न कर वह घर आया और उसने पत्नी को पूछा ।
पत्नी ने सोचा- "लक्ष्मी के लाभ से आगे बढ़ा पुरुष अपने पुराने मित्र, स्त्री और घर को छोड़ देता है".... यह विचार कर उसने कहा - " राज्य तो अत्यन्त क्लेशकारी है, अतः राज्य से वया मतलब ? आप एक दूसरा मस्तक और दो हाथ मांग लो, जिससे एक साथ दो वस्त्र बुने जायेंगे ।"
पत्नी की सलाह से उसने व्यन्तर के पास एक मस्तक और दो हाथों की याचना की । व्यन्तर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। दो सिरों व चार हाथों वाला वह जब गाँव में घुसने लगा तब लोगों ने उसे राक्षस समझ कर लकड़ियों व पत्थरों के प्रहार से मार डाला। कहा भी है - " जिसके पास स्वयं की प्रज्ञा नहीं है और मित्र की बात भी नहीं मानता है, वह स्त्री के गुलाम मंथर कोलिक की तरह विनाश को ही पाता है ।" उपर्युक्त प्रसंग क्वचित् बनता है । अतः उत्तम और बुद्धिमती स्त्री की सलाह लेने से तो विशेष फायदा ही होता है। जैसे- अनुपमादेवी की सलाह से वस्तुपाल और तेजपाल को फायदा ही होता था ।
कुलीन, परिणतवयवाली, निष्कपट, धर्म में रक्त, अपनी सगी सम्बन्धी स्त्रियों के साथ और समान धर्मवाली स्त्रियों के साथ अपनी स्त्री को प्रीति करानी चाहिए। अकुलीन का संसर्ग तो कुलवती स्त्रियों के लिए कलंक रूप है ।
स्त्री को रोग आदि उत्पन्न हो तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। तप, उद्यापन, दान, प्रभु-पूजा, तीर्थयात्रा आदि धर्मकार्यों में स्त्री का उत्साह बढ़ाना चाहिए और उसे सहायता करनी चाहिए, परन्तु कभी भी अन्तराय नहीं करना चाहिए। क्योंकि स्त्री के पुण्य में पुरुष भी भागीदार धर्मकार्य में सहयोग देना यह परोपकार का कार्य है ।.
5 पुत्र के प्रति श्रौचित्य पालन फ
'बाल्यकाल में पुत्र का पौष्टिक आहार तथा विविध क्रीड़ानों द्वारा पालन-पोषण करना चाहिए । बाल्यकाल में बालक का देह कमजोर व संकुचित रह जाय तो फिर कभी पुष्ट नहीं होता
है । बालक जब बड़ा हो और उसकी बुद्धि विकसित हो तब उसे कलाओं में कुशल बनाना चाहिए।
.
कहा है- “पाँच वर्ष तक बालक का लालन-पालन करना चाहिए, उसके बाद दस वर्ष तक