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श्राद्धविधि / १६२
में अपना मुह नहीं देखना चाहिए तथा दीर्घायुष्य के इच्छुक व्यक्ति को रात्रि में भी दर्पण में अपना मुँह नहीं देखना चाहिए। हे राजन् ! कमल और कुवलय को छोड़कर पंडित पुरुष को लाल माला धारण नहीं करनी चाहिए, बल्कि सफेद माला धारण करनी चाहिए। हे नरोत्तम ! शयन, देवपूजा तथा सभा में जाने के वस्त्र अलग-अलग रखने चाहिए ।
वाणी तथा हाथ-पैर की चपलता का त्याग करें। प्रति भोजन न करें। शय्या, दीपक, अधम व्यक्ति तथा स्तम्भ की छाया का दूर से त्याग करें ।
नाक में अंगुली नहीं डालें। अपने जूते न उठायें । सिर पर भार वहन न करें तथा चालू वर्षा में न दौड़ें। पात्र के भंग से झगड़ा होता है । खाट के भंग से वाहन का क्षय होता है । जहाँ श्वान व मुर्गे रहते हों वहाँ पितर अपना पिंड नहीं लेते हैं। भोजन तैयार होने पर सुवासिनी स्त्री ( विवाहित या एकाकिनी स्त्री जो अपने पिता के घर रहती है), गर्भिरणी स्त्री, वृद्ध, बालक व रोगी को पहले भोजन कराये, उसके बाद गृहस्थ भोजन करे ।
पाण्डव श्रेष्ठ (युधिष्ठिर ) ! अपने घर के प्रांगन में बँधी हुई गाय आदि को घास पानी दिये बिना तथा गृहांगन में देखते हुए याचकों को दिये बिना ही जो भोजन करता है, वह केवल पाप ही भोगता है । अपने घर की वृद्धि के इच्छुक व्यक्ति को अपनी ज्ञाति के वृद्ध पुरुष को तथा दरिद्र मित्र को अपने घर में रखना चाहिए। प्राज्ञ पुरुष के अपमान को आगे कर और अपने मान को पीछे कर स्वार्थ को सिद्ध करना चाहिए, क्योंकि स्वार्थ से भ्रष्ट होना मूर्खता है ।
थोड़े लाभ के लिए अधिक का नुकसान न करें। थोड़ा खर्च कर अधिक का रक्षण करने में ही बुद्धिमत्ता है | आदान-प्रदान का कार्य निश्चित समय के भीतर कर लेना चाहिए, अन्यथा काल उसका रस (सार) पी लेता है । जिस घर में आदर न मिले, जहाँ मीठी बात न हो तथा गुणदोष की भी बात न हो, उस घर में नहीं जाना चाहिए। हे पार्थ! बिना बुलाये प्रवेश करे बिना पूछे बकवास करे, बिना दिये आसन पर बैठ जाय, उसे अधम पुरुष समझना चाहिए ।
कमजोर होकर गुस्सा करे, निर्धन होकर मान की इच्छा करे और गुणहीन होकर गुणीजनों से द्व ेष करे - ये तीन पुरुष पृथ्वी पर लकड़ी के समान हैं। माता-पिता का भरणपोषण नहीं करने वाला, पूर्व में की हुई क्रिया को उद्देशित कर याचना करने वाला तथा मृतक की शय्या को ग्रहण करने वाला ये तीनों पुनः मनुष्य नहीं बनते हैं । स्थायी लक्ष्मी के इच्छुक व्यक्ति को बलवान के साथ भिड़न्त होने पर बेंत के समान नम्र बन जाना चाहिए न कि सर्प की तरह वक्र बनना चाहिए । क्रमशः बेंत की वृत्ति के अनुसार जीने वाला महान् लक्ष्मी को प्राप्त करता है और भुजंग वृत्ति वाला व्यक्ति केवल अपना वध ही कराता है ।
बुद्धिमान पुरुष कभी कछुए की तरह अपने अंगोपांग का संकोच कर ताड़नाओं को भी सहन करे और अवसर आने पर काले सर्प की भाँति आक्रमण भी करे। कमजोर भी यदि संगठित हों तो बलवान भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं जैसे महाप्रचण्ड वायु एक दूसरे के आश्रय से गुफित हुई लताओं को नहीं उखाड़ सकती है । विद्वान् पुरुष एक बार दुश्मन को चढ़ाकर फिर उसी का नाश करते हैं। गुड़ से बढ़ाया हुआ श्लेष्म सम्पूर्ण बाहर निकल जाता है ।