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श्रावक जीवन-दर्शन / १४७
5 व्यवहारशुद्धि पर हेलाक का दृष्टान्त फ्र
किसी नगर में हेलाक नाम का सेठ था । उसके चार पुत्र थे । धन के लोभ के कारण उसने तीन-सेर, पाँच सेर प्रादि के झूठे माप-तौल बना दिये थे । वह अपने पुत्रों को त्रिपुष्कर, पंचपुष्कर आदि संकेतों से गाली देने के बहाने कम देकर और ज्यादा लेकर लोगों को ठगता था ।
सेठ की चौथी पुत्रवधू अत्यन्त विवेकी थी । उसे जब सेठ के इस दुर्व्यवहार का पता चला
तो उसने सेठ को बहुत उलाहना दिया तो सेठ ने कहा - "क्या करें ?
इसके बिना तो जीवन निर्वाह
ही सम्भव नहीं है । भूखा व्यक्ति कौनसा पाप नहीं करता है ?"
पुत्रवधू ने कहा - "हे तात ! ऐसा न बोलो । व्यवहार-शुद्धि रखने से तो सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं ।" कहा भी है
“न्याय से बर्ताव करने वाले यदि धर्मार्थी या द्रव्यार्थी हों तो उन्हें सत्यता से सचमुच धर्म और द्रव्य की प्राप्ति हुए बिना नहीं रहती । अगर न्याय से बर्ताव न करे तो किसी भी प्रकार से धर्म एवं द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती ।"
"अतः आप परीक्षा के लिए भी छह मास के लिए अनीति को छोड़ दें और फिर देखें आपको कितनी धनवृद्धि होती है । परीक्षा में सफलता मिले तो आगे भी वैसा ही करें।"
सेठ ने पुत्रवधू की बात स्वीकार कर ली । व्यापार में न्याय-नीति के पालन के फलस्वरूप सेठ की दुकान पर बहुत ग्राहक श्राने लगे, जिससे सेठ का जीवन निर्वाह भी आसानी से होने लगा । 'पल' प्रमाण सोने की भी वृद्धि हुई ।
छह मास
“न्याय का धन खो जाय तो भी वापस मिल जाता है” – पुत्रवधू के इस वचन की परीक्षा के लिए सेठ ने उस बचे हुए सोने पर लोहा जड़वाकर उस पर अपना नाम लिखकर उसका एक सेर बनवाया । अपनी दुकान में तौलने के लिए रख छोड़ा। इस प्रकार छह मास हुए फिर उसे किसी सरोवर में फेंक दिया । मत्स्य ने उसे भक्ष्य समझकर निगल लिया । कुछ समय बाद वही मत्स्य मच्छीमार के द्वारा पकड़ा गया । मत्स्य को चीरने पर उसमें से सेठ के नाम से अ ंकित वह सेर मिला । मच्छीमार ने जाकर वह सेठ को सौंप दिया ।
बाद में परिवार सहित सेठ को पुत्रवधू के वचन पर एकदम विश्वास आ गया। उसके बाद न्याय व नीतिपूर्वक व्यापार करने के कारण वह सेठ समृद्ध एवं राजमान्य बना । क्रमशः प्रसिद्ध श्रावक बना । लोग उसका नाम लेने लगे। उसके नाम के प्रभाव से अन्य लोगों के भी विघ्न दूर होने लगे । सुना जाता है कि आज भी बड़ी नाव को चलाते समय नाविक लोग उसके नाम को 'हेला - हेला' कहकर याद करते हैं ।
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"स्वामी, मित्र, विश्वासी, देव, गुरु, वृद्ध तथा बालक के साथ द्रोह करना और उनकी न्यास का अपहरण करना, यह तो उनकी हत्या के समान है, अतः ऐसे पाप एवं अन्य बड़े पापों का अवश्य त्याग करना चाहिए ।" कहा भी है