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श्राद्धविधि / १६६
उपार्जित धन से जो अपना हित चाहता है, वह कालकूट विष के भक्षण से जीवन की इच्छा करता है।"
अन्याय से उपार्जित धन से प्रायः कर गृहस्थ को रंक श्रेष्ठी आदि की तरह कलह, अहंकार एवं पापबुद्धि आदि की ही प्रवृत्ति होती है ।
5 श्रन्यायोपार्जित वित्त पर रंक श्रेष्ठी का दृष्टान्त फ
मारवाड़ के पाली नामक गाँव में काकुश्माक और पाताक नामक दो सगे भाई थे । उनमें छोटा भाई धनवान था। बड़ा भाई निर्धन होने से अपने छोटे भाई के यहाँ नौकरी करके श्राजीविका चलाता था । एक समय चातुर्मास में सारा दिन काम करने से थक जाने के कारण काकु रात्रि के वक्त जल्दी सो गया तभी पाताने कर, गुस्से में कहा कि “अरे भाई ! अपने क्यारे तो पानी पड़ने से भर कर फूट गये हैं और तू सुख से सो रहा है ? तुझे कुछ इस बात की चिन्ता है ?" उसे इस प्रकार उपालम्भ दिया । काकुप्राक “धिक्कार है ऐसी नौकरी को ! और धिक्कार है इस मेरे दरिद्रीपन को !" इस प्रकार बोलता हुआ उठकर हाथ में फावड़ा ले, खेतों में पहुँचा । वहाँ उसने देखा कि बहुत से मजूर लोग क्यारे सुधारने में लग रहे हैं, वह उनसे पूछने लगा कि - "अरे ! तुम कौन हो ?" उन्होंने कहा - "आपके भाई का काम करने वाले नौकर हैं ।" उसने पूछा - "मेरे नौकर कहाँ पर हैं ?" यह सुनकर नौकरों ने कहा कि - " वल्लभीपुर में हैं ।" इससे वहाँ पर थोड़े दिन व्यतीत कर अपने कुटुम्बियों को साथ ले वह वल्लभीपुर नगर में गया। नगर के दरवाजे के पास बहुत से अहीर लोग बसते थे । वह भी वहीं पर घासकी एक झोंपड़ी बाँधकर रहने लगा । अत्यन्त गरीब होने से लोग उसे रंक कहकर पुकारने लगे, उसने उनकी सहायता से छोटी सी दुकान लगाली ।
उस समय कोई अन्यदर्शनी योगी गिरनार पर जाकर विधिपूर्वक रस- कुम्पिका में से सिद्ध रस को भर कर अपने मार्ग से चला जाता था। इतने में ही अकस्मात् "यह तू बा काकुद्माक का है ।" इस प्रकार की सिद्धरस में से वाणी सुनकर वह बेचारा डरता हुआ अन्त में वल्लभीपुर श्रा पहुँचा और गाँव के दरवाजे के पास दुकान करने वाले रंक सेठ के यहाँ सिद्ध रस के तू बे को रखकर सोमेश्वर की यात्रार्थ चला गया ।
कितने दिन बाद कोई पर्व आने से चूल्हे पर रसोई करते हुए, तापके कारण ऊपर लटकाये हुए तू 'बे में से रस का एक बिन्दु चूल्हे पर रखे हुए तवे पर पड़ने से वह तत्काल ही सुवर्णमय बन गया । इस पर से तू बे में सिद्धरस भरा समझकर उस योगी को वापिस देने के भय से यानी उसे दबा रखने के लालच से रंक सेठ ने अपना मालमत्ता दूसरी जगह रख उस झोंपड़ी में आग लगादी और उसी गाँव के दूसरे दरवाजे के समीप एक नयी दुकान लेकर उसमें घी का व्यापार करने लगा ।
एक समय किसी गाँव की अहीरन उसकी दुकान पर घी बेचने आयी । उसकी घी की मटकी में से घी खाली ही नहीं होता था, इससे निश्चय किया कि घासकी बनायी हुई इसकी ईंढी चित्रावेल है । इस विचार से रंक सेठ ने कपट द्वारा अहीरन से चित्रावेल ले ली। वह धन का लोभी देने के कम वजन के बाट और लेने के अधिक वजन के बाट रखता था । ऐसे कृत्यों से व्यापार करते हुए पापानुबन्धी पुण्य के बल से व्यापार में तत्पर रहते हुए वह महा धनाढ्य हुआ ।