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श्राद्धविधि / १७२
5 उचित प्रचार क
जिसके लिए जो योग्य उचित हो, वैसा आचरण करना उचित प्रचार कहलाता है । यह उचित प्रचार भी पिता आदि के विषय में नौ प्रकार का है । उचित आचरण से स्नेह की वृद्धि और कीर्ति की प्राप्ति होती है। हितोपदेशमाला में कहा है- "मनुष्यत्व सब मनुष्यों में समान होने पर भी यहाँ कुछ ही मनुष्य विशेष कीर्ति आदि प्राप्त करते हैं, निःसन्देह यह उनके उचित आचरण का ही माहात्म्ये है ।"
(3) भाई सम्बन्धी
वह उचित आचरण नौ प्रकार का है(4) स्त्री सम्बन्धी ( 8 ) नगर के प्रतिष्ठित लोकसम्बन्धी और ( 9 ) अन्यदर्शनी सम्बन्धी ।
( 1 ) पिता सम्बन्धी (5) सन्तान सम्बन्धी
( 2 ) माता सम्बन्धी (6) स्वजन सम्बन्धी
(7) ज्येष्ठ सम्बन्धी
* पिता सम्बन्धी प्रौचित्य
पिता के वचन, काया और मन से सम्बन्धित जो प्रौचित्य पालन करना है— उसे क्रमश: कहते हैं - पिता की शारीरिक सेवा विनयपूर्वक सेवक की तरह स्वयं करें, नौकरों द्वारा न करावें । जंसे- उनके पैर धोना, पैर दबाना, उन्हें उठाना, बिठाना, देश-काल के अनुरूप उन्हें सात्त्विक भोजन खिलाना, शयन, वस्त्र तथा मालिश की वस्तु आदि प्रदान करना। ये सब कार्य विनय से करें, न कि दूसरे के कहने से अथवा अवज्ञादि से। कहा भी है- “पिता समक्ष बैठे हुए पुत्र की जो शोभा होती है, उसकी सौवें भाग की भी शोभा पुत्र के उच्च सिंहासन पर बैठने से भी नहीं होती है ।"
पिता के मुख से निकलते हुए वचन को भी तुरन्त स्वीकार करें। वे प्रदेश करें, उसके साथ ही 'आपकी आज्ञा प्रमाण है - इस प्रकार आदरपूर्वक पिता की आज्ञा को स्वीकार करें । राज्याभिषेक के प्रसंग पर पिता के वचन-पालन के खातिर रामचन्द्रजी ने वनवास स्वीकार लिया था, उसी प्रकार पिता की आज्ञा को स्वीकार करें। सुना-अनसुना कर सिर हिलाना, कालक्षेप करना अथवा अधूरा कार्य करना - इस प्रकार पिता के वचनों की अवज्ञा नहीं करनी चाहिए ।
हर कार्य में सर्व प्रयत्नपूर्वक पिता के चित्त का अनुसरण करना चाहिए। अपनी बुद्धि से निश्चित अवश्य करने योग्य कर्म का भी आरम्भ तभी करना चाहिए जब पिता का चित्त अनुकूल हो । समस्त लौकिक और लोकोत्तर व्यवहार में उपयोगी शुश्रूषा आदि बुद्धि के गुणों का अभ्यास करना चाहिए । अच्छी तरह से दीर्घदृष्टि वाले पिता आदि की सेवा की हो तो वे कार्यों के रहस्य को बतलाते ही हैं ।
कहा भी है- "वृद्धों की उपासना नहीं करने वाले और पुराण और आगम के बिना जैसेतैसे उत्प्रेक्षा करने वाले लोगों पर बुद्धि प्रसन्न नहीं होती है। जो एक स्थविर (वृद्ध) जानता है, वह करोड़ तरुण भी नहीं जानते हैं । राजा को लात मारने वाला वृद्ध के वाक्य से पूजा जाता है ।" "वृद्ध पुरुषों का वचन सुनना चाहिए और अवसर माने पर बहुश्रुत पुरुषों को ही पूछना चाहिए। वन में बँधे हुए हंसों का समूह वृद्ध की बुद्धि से छूट गया । अपने चित्त का अभिप्राय पिता को अवश्य कहना चाहिए ।"