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श्रावक जीवन-दर्शन/१७३ प्रत्येक कार्य पिता को पूछ कर ही करना चाहिए। उनके द्वारा निषिद्ध कार्य नहीं करने चाहिए। अपनी भूल होने पर वे कठोर शब्द भी कहें तो भी विनय का त्याग नहीं करना चाहिए।
अभय कुमार ने जिस प्रकार अपने पिता श्रेणिक महाराजा और चेलना माता के मनोरथ पूर्ण किये थे, उसी प्रकार सुपुत्र को अपने पिता के सभी मनोरथ पूर्ण करने चाहिए ।
प्रभु-पूजा, गुरु की उपासना, धर्मश्रवण, पच्चक्खाण-ग्रहण, षड़ावश्यक, सात क्षेत्रों में धन-वपन, तीर्थयात्रा, दीन तथा अनाथ लोगों का उद्धार करना इत्यादि धर्मविषयक मनोरथ भी अत्यन्त आदर के साथ पूर्ण करने चाहिए।
लोक में श्रेष्ठ पिता आदि के मनोरथों को पूर्ण करना सुपुत्रों का कर्तव्य ही है। केवलीभाषित धर्म में उन्हें जोड़ने के सिवाय उनके उपकार की ऋण-मुक्ति का अन्य कोई उपाय नहीं है।
स्थानांग सूत्र में कहा है-"माता-पिता, स्वामी और धर्माचार्य का उपकार दुष्प्रतिकारक है अर्थात् उनके उपकार के बदले को चुकाया नहीं जा सकता।"
के मातापिता के उपकार से ऋणमुक्ति के यदि कोई व्यक्ति प्रातःकाल से अपने माता-पिता को शतपाक और सहस्रपाक तैल से मालिश कर गन्धोदक, उष्णोदक और शीतोदक से स्नान कराता है, उसके बाद वस्त्र-अलंकारों से उन्हें सजाकर अठारह प्रकार के शाक सहित मनपसन्द भोजन कराता है और जीवनपर्यंत अपने कन्धों पर धारण करता है, तो भी वह व्यक्ति माता-पिता के ऋण से मुक्त नहीं बन पाता है। परन्तु वही व्यक्ति अपने माता-पिता को केवली-भाषित धर्म सुनाकर, उस धर्म के स्वरूप की प्ररूपणा कर उन्हें धर्म में स्थिर करता है तो वह व्यक्ति माता-पिता के उपकार के ऋण से मुक्त हो सकता है।
卐 स्वामी के उपकार से मुक्ति; यदि कोई धनवान व्यक्ति किसी दरिद्र की सहायता कर उसे अच्छी स्थिति में ला दे, उसके बाद वह विपुल समृद्धि को भोग रहा हो और उस समय वह धनवान व्यक्ति दरिद्र बन जाय और समृद्ध बने उस व्यक्ति के पास आये तब वह समृद्ध व्यक्ति अपने उपकार की ऋणमुक्ति के लिए अपने उपकारी को सर्वस्व सौंप दे तो भी उस ऋण से वह मुक्त नहीं हो सकता है परन्तु वह अपने स्वामी को केवलीकथित धर्म के स्वरूप को समझाकर उस धर्म में उसे स्थिर करे तो उस उपकार के ऋण से मुक्त हो सकता है।
卐 धर्माचार्य के उपकार से मुक्ति ॥ कोई व्यक्ति सिद्धान्त में निरूपित लक्षण वाले श्रमण धर्माचार्य के पास से धर्म का श्रवण कर मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में उत्पन्न हो, उसके बाद वह देव अपने उपकारी धर्मगुरु को दुभिक्ष के क्षेत्र में से सुभिक्ष के क्षेत्र में ला दे, भयंकर जंगल में से पार उतार दे अथवा दीर्घकाल से पीड़ित धर्मगुरु को रोग से मुक्त कर दे तो भी वह देव उस ऋण से मुक्त नहीं हो सकता है, परन्तु वह देव यदि केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हुए धर्मगुरु को पुनः धर्म में स्थिर करे तो वह देव अपने धर्मगुरु के उपकार से ऋणमुक्त हो सकता है।