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श्रावक जीवन-दर्शन/१६३
ॐ न्यायोपार्जित धन के इस प्रकार न्याय से धन उपार्जित करने वाले व्यक्ति पर कोई शंका नहीं करता है। सर्वत्र उसकी प्रशंसा ही होती है। अन्य किसी प्रकार की हानि उसे नहीं होती है। जिससे सुख-समृद्धि की वृद्धि होती है और वह लक्ष्मी शुभ कार्य में भी उपयोग में आने से इस लोक और परलोक के लिए हितकारी बनती है।
कहा भी है-पवित्र पुरुष अपने कर्म-बल पर गर्व करने वाले होने से सर्वत्र धीरता धारण करते हैं, जबकि कुकर्म से नष्ट हुए पापी लोग सर्वत्र शंकाशील ही होते हैं।
卐 देव और यश का इष्टान्त ॥ देव और यश नाम के दो व्यापारी परस्पर प्रीतिपूर्वक व्यापार करते थे। एक बार चलते समय मार्ग में उन्होंने मणिकुण्डल को भूमि पर पड़ा देखा। देव श्रावक था, दृढ़वती था और परद्रव्य को अनर्थकारी मानने वाला था, अतः मणिकुण्डल को देखने पर भी उसने नहीं उठाया और लौट आया। दूसरा व्यापारी यश एक बार तो लौट आया, परन्तु उसने सोचा--"नीचे गिरे हुए को लेने में अधिक दोष नहीं है"-इस प्रकार विचार कर उसने देव सेठ की दृष्टि बचाकर मणिकुण्डल उठा लिया।
यश सेठ ने सोचा-"देव सेठ को धन्य है, जो इतना निःस्पृह है परन्तु वह मेरा मित्र है अतः युक्तिपूर्वक आधा उसे जरूर दूगा।"
यश ने वह मणिकुण्डल छिपा दिया और दूसरे नगर में जाकर उस कुण्डल को बेचकर बहुतसो वस्तुएँ खरीद लीं।
क्रमशः वे दोनों अपने घर लौटे। लायी हुई वस्तुओं का विभाजन करते समय बहुत सी वस्तुओं को देख देव सेठ ने उसे आग्रह करके पूछा तो उसने सब बात सही-सही कह दी।
देव सेठ ने कहा-"यह अन्याय से अजित होने से ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि कांजी से जिस प्रकार दूध नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अन्याय की सम्पत्ति से अपना न्यायाजित धन भी नष्ट हो जायेगा।"
देव सेठ ने मणिकुण्डल से प्राप्त सामग्री अलग करके वापस यश सेठ को दे दी। _ "पाये हुए धन को क्यों छोड़ें?". इस प्रकार लोभ से उसने वह सब सामग्री अपने गोदाम में डाल दी और उसी रात्रि में चोरों ने आकर उसकी वह सारी सम्पत्ति चुरा ली।
प्रातःकाल में देव सेठ की वस्तु को खरीदने के लिए बहुत से ग्राहक आये। इस प्रकार देवसेठ को दुगुणा मूल्य प्राप्त होने से बहुत लाभ हुआ।
यशसेठ को अपनी भूल समझ में आ गयी। इसके बाद वह भी सुश्रावक बना और व्यवहारशुद्धि द्वारा धनार्जन कर सुखी बना।