________________
श्राद्धविधि / १४६
खरीदने के लिए जा रहे थे, तब घी के व्यापारी का मन शुद्ध था क्योंकि वह सुकाल चाहता था, क्योंकि सुकाल में घी सस्ता मिलता है और चमड़े के व्यापारी के दिल में दुष्काल की भावना थी । क्योंकि दुष्काल पड़े और अधिक पशु मरे तो चमड़ा सस्ता मिल सकता था ।
लौटते समय घी के व्यापारी के मन में 'दुष्काल पड़े तो घी महंगा बेचा जा सके' का अशुभ विचार था और चमड़े के व्यापारी के मन में 'सुकाल पड़े तो अच्छा' का शुभ विचार था क्योंकि काल होने से चमड़ा महँगा हो जाएगा । श्राद्यपञ्चाशक की टीका में कहा हैहै—
उचिनं मुत्तूरण कलं दव्वाइ कमागयं च उक्करिसं । निवडश्रमवि जाणतो परस्स संतं न गिव्हिज्जा ॥
टीका का अर्थ - सैकड़े पर सालाना चार-पाँच का ब्याज अथवा 'व्याजे स्यात् द्विगुणं वित्तं' यानी ब्याज से दुगुना होता है । इस कहावत के अनुसार नगद का अधिकतम दुगुना और धान्य का तीन गुना तथा गरिणम, धरिमादि अनेक प्रकार के द्रव्यों के क्षय से कमी आने पर माल के भाव में वृद्धि हुई हो तो उससे अधिक नहीं लेना । अर्थात् किसी प्रकार से सुपारी आदि के क्षय से दुगुना तीनगुना लाभ हो जाए तो उसे शुभ आशय से ग्रहण करें। मगर ऐसा विचार नहीं करना कि "अच्छा हुआ सुपारी आदि का क्षय हुआ ।" तथा दूसरे की गिरी हुई वस्तु भी नहीं लेनी चाहिए । ब्याज आदि में तथा क्रय-विक्रय में देश-काल आदि के अनुसार जो वाजिब हो एवं लोक से अनिन्दित हो, ऐसा ही मुनाफा ग्रहण करना चाहिए ।
5 झूठे माप-तौल न रखें 5
}
झूठा तराजू अथवा माप रखकर दूसरे को न ठगें । लेने में अधिक व देने में कम न दें प्रवाही (रस) वस्तु में अथवा दूसरी वस्तु में हल्की वस्तु की मिलावट न करें । अनुचित मूल्यवृद्धि न करें । अनुचित ब्याज न लें, रिश्वत न लें। रिश्वत न दें। अघटित कर न लें। नकली या घिसा हुआ सिक्का न दें। दूसरे के क्रय-विक्रय का भंग न करें। दूसरे के ग्राहक को भ्रमित न करें। अच्छा माल बताकर खराब माल न दें। अंधेरे में वस्त्र आदि का लेन-देन कर किसी को न ठगें । अक्षर में फेरफार करना इत्यादि प्रकृत्य सर्वथा त्यागने चाहिए । कहा भी है
"जो लोग अनेकविध उपायों द्वारा माया करके दूसरों को ठगते हैं, वास्तव में देखा जाय तो वे महामोह के मित्र बनकर अपने आपको ही स्वर्ग और मोक्ष के सुखों से ठगते हैं ।" ( अर्थात् मायाचार करने वाला स्वर्ग व मोक्ष का सुख प्राप्त नहीं करता है, उन सुखों से वंचित रहकर अपने आपको ही ठगता है | )
ऐसा कुतर्क देने की भी आवश्यकता नहीं है कि व्यापार में न्याय-नीति का पालन करने से गरीबों के लिए जीवन-निर्वाह ही दुष्कर हो जायेगा ।
सचमुच, आजीविका तो अपने कर्म के प्रधीन है । व्यवहार-शुद्धि रखने से तो ग्राहक अधिक आते हैं, फलस्वरूप जीवन - निर्वाह विशेष प्रकार से हो सकता है ।